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________________ मेरी करुणा मुझसे छीन ली है, मेरी वाणी की मधुरता हर ली है और मेरे कार्य को सहयोग-शून्य बना दिया है? __मैं बाहर की दुनिया पर भी एक नजर दौड़ाता हूं कि क्या मेरे जैसा मैं ही हूं या दूसरे भी हैं जो मुझसे ज्यादा अच्छे हों व ऐसे भी लोग हो सकते हैं जिनसे मैं ज्यादा अच्छा होऊ। इस संदर्भ में मुझे चार प्रकार के मनुष्य दिखाई देते हैं जिनके हृदय को घड़े की और उनके वचन को ढक्कन की उपमा दी गई है—(१) मधु का घड़ा और मधु का ढक्कन याने विचार भी मधुर और वचन भी मधुर, (२) मधु का घड़ा और विष का ढक्कन-वचन भले कडुए हो मगर हृदय निष्पाप और मधुर, (३) विष का घड़ा और मधु का ढक्कन-वे खतरनाक होते हैं जो ऊपर से मीठा बोलते हैं लेकिन भीतर में जहर भरा रखते हैं तथा (४) विष का घड़ा और विष का ढक्कन–विचार और वचन दोनों में जहर भरा हो। मैं सोचता हूं कि मैं किस श्रेणी में हूं? ये श्रेणियां मानव-संसर्गजनित कसौटियां ही तो हैं जो अनुभव के आधार पर बनाई जाती हैं। यह श्रेणी निर्धारण मुझे बता सकता है कि मेरा मानस, मेरी वाणी और इनके द्वारा संचालित होने वाले मेरे कार्य कितने उच्च हैं अथवा कितने तुच्छ ? इसी प्रसंग में मैं अपने स्वरूप दर्शन को आप्त वचनों की गहराई में उतारना चाहता हूं जिनमें कहा गया है कि जिसका अन्तर्हृदय निष्पाप और निर्मल है, साथ ही वाणी भी मधुर है, उसकी सुज्ञता और संवेदनशीलता सदा जागृत रहती है। कुछ व्यक्ति समुद्र तैरने जैसा महान् संकल्प करते हैं और समुद्र तैरने जैसा महान् कार्य भी करते हैं। कुछ व्यक्ति समुद्र तैरने जैसा महान् संकल्प करते हैं किन्तु कुछ गोष्पद (गाय के खुर जितना पानी) तैरने जैसा क्षुद्र कार्य ही कर पाते हैं। कुछ व्यक्ति गोष्पद तैरने जैसा क्षुद्र संकल्प करके समुद्र तैरने जैसा महान् कार्य कर जाते हैं। कुछ गोष्पद तैरने जैसा क्षुद्र संकल्प करके गोष्पद तैरने जैसा ही क्षुद्र कार्य कर पाते हैं। फिर मैं सोचता हूं कि मैं किस प्रकार का व्यक्ति हूं, और मुझे किस प्रकार का व्यक्ति होना चाहिये? मैं सोचता हूं, मैं देखता हूं और मेरी अपनी आलोचना का क्रम चल पड़ता है। मैं अनुभव करता हूं कि मेरा मानस, मेरी वाणी और मेरे कार्य तुच्छ भावों से ग्रस्त हो रहे हैं, मेरी मूल महत्ता आवृत्त हो रही है, मेरा पुरुषार्थ श्लथ हो रहा है और मेरा स्वरूप विकृत बनता जा रहा है। क्यों हो रहा है ऐसा ? मैं यह जानने को अधीर हो जाता हूं। तब मेरा चिन्तन गहराई में उतरता जाता है कि मेरी ऐसी तुच्छता और हीन भावना का क्या कारण है ? मैं अपने ज्ञान की स्मृतियों को उलटता पलटता हूं तो मुझे लगता है कि मैं कभी ऐसा भी था जब मेरे मानस में सर्वहित-कारिणी सुज्ञता रहती थी, जब मेरी वाणी संवेदनशीलता के तारों को झंकृत करती हुई निकलती थी तथा जब मेरे कार्य दयाद्रवित और मानवीय होते थे। जब कभी मैं ऐसा था तो आज की तुच्छताओं और हीनताओं से उबर कर क्या मैं पुनः वैसा ही नहीं हो सकता हूं। किन्तु वैसा होने के लिये मुझे उस कारण पर दृष्टिपात करना होगा जिसने मेरा ऐसा रूपान्तरण कर दिया, क्योंकि कारण को समझकर ही उसका निदान और समाधान कर सकूँगा। मेरी वर्तमान विदशा की पृष्ठभूमि में जब मैं पहुंचता हूं तो समझ में आता है कि ज्यों-ज्यों मैं अपने 'आप' को भूलता गया और सांसारिकता में रमता गया, त्यों-त्यों विषय एवं कषायों के तूफान मेरे भीतर उमड़ने-घुमड़ने लगे। मेरा आन्तरिक स्वरूप आन्दोलित हो उठा और उस तूफान से १७८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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