SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौथा सूत्र मैं सुज्ञ हूं, संवेदनशील हूं। मैं सब जानता हूं, इतना ही नहीं हैं। मैं सबका अच्छा जानता हूं—हित जानता हूं, शुभ जानता हूं इसीलिये मैं सुज्ञ हूं। मैं सबका अच्छा, हित और शुभ जानता हूं तो क्या अपना स्वयं का अच्छा, हित और शुभ नहीं जानता? ऐसा कैसे हो सकता है? क्या सब में मेरा सम्मिलन नहीं है? सबमें मैं भी तो आ ही जाता हूं। अन्तर है तो यह कि मैं अपना ही अच्छा, हित और शुभ नहीं चाहता हूं-सबका चाहता हूं, अपना भी चाहता हूं। यही तो मेरी सुज्ञता मैं सुज्ञ हूं सबका हित जानता हूं और चाहता हूं। मेरा हृदय ऐसे सरोवर के समान है जो मानो स्फटिक शिलाओं के मध्य निर्मल जल से भरा हुआ हो जिसमें मैल का अंश तक नहीं। विशुद्ध निर्मलता सबके लिये हैं, मेरे लिये है। मेरी आन्तरिकता में ऐसा अनुपम सरोवर लहरा रहा है। जल की सतह शान्त और प्रशान्त है। ऊपर से ही भीतर की स्फटिक शिलाएं चमक रही है। तल से लेकर सतह तक निर्मलता की एकरूपता है। यह सरोवर मेरे अन्तःकरण में मूल रूप से विभूषित अनन्त दया और अनन्त करुणा का सरोवर है। मेरी यह दया और करुणा समता से आप्लावित है। वह कोई विषमता का भेद नहीं जानती। संसार के समस्त प्राणियों पर यथायोग्य रूप से बरसना चाहती है। मेरी करुणा मुझ पर ही बरसे—यह आश्चर्य की बात हो सकती है किन्तु मैं सुज्ञ हूं अतः जानता हूं कि मैं स्वयं करुणा का कितना बड़ा पात्र हूं? मेरी आज की विदशा क्या मुझ पर अपार करुणा नहीं उपजाती? क्या मैं ही मेरी दुर्दशा पर तरस नहीं खाता हूं? मेरी यह करुणा ही मुझे जगाती है कि उठो और अपने भीतर के सरोवर के चारों ओर फैली गंदगी को दूर करलो। तुम जैसे निर्मल के लिये यह मल का अस्तित्व कलंक की बात है। यह बद्ध कर्मों का मल है जिसे मेरी सुज्ञता स्वच्छ बना देने को आतुर है। वह सबको प्रेरणा देना चाहती है कि सभी प्राणी अपने हृदय में स्थित इस सरोवर के चारो तरफ के मल को स्वच्छ करलें, ताकि सरोवर की निर्मल शोभा सुप्रकट हो जाय। मैं सुज्ञ हूं इसीलिये संवेदनशील हूं। मेरी करुणा के जल सतह पर लगने वाला सूक्ष्म आघात भी मुझमें तीव्र स्पन्दन उत्त्पन्न कर देता है—लहरों पर लहरें उठने लग जाती हैं। मैं करुणा से हिल उठता हूं। यह आघात दूसरे ही नहीं करते, मैं स्वयं भी करता हूं। मेरी एक अशुभ क्रिया भी मुझे संवेदित करती है कि मै उसकी अशुभता को समझू और अशुभता के स्थान पर शुभता का संचार करूं। जब दूसरे की अशुभ क्रिया भी अपने ही किसी साथी को पीड़ा पहुँचाती है, तब वह पीड़ा भी मुझे संवेदित और स्पन्दित बना देती है। मैं अपार करुणा से ओतप्रोत हो जाता हूं। करुणा अपनी पीड़ा पर तो करुणा दूसरों की पीड़ा पर –यह करुणा मेरा धर्म बन जाती है। कभी आपने किसी झील के शान्त जल को देखा है ? उसमें गिरने वाला एक छोटा-सा कंकड़ भी उस शान्त जल को आन्दोलित बना देता है। कंकड़ के गिरने के स्थान से लहरें उठती ही १७५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy