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________________ असावधानी से निरीक्षण करना । (ब) अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित शय्या संस्तारक –— शय्या, संस्तारक को न पूंजना अथवा अनुपयोगपूर्वक असावधानी से पूंजना । (स) अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित उच्चार प्रस्रवण भूमि - मल-मूत्र आदि परिठवने के स्थंडिल को न देखना या बिना उपयोग असावधानी से देखना । (द) अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रस्रवण भूमि स्थंडिल को न पूंजना या अनुपयोग पूर्वक असावधानी से पूंजना । (य) पौषधोपवास का सम्यक् अपालन – आगमोक्त विधि से स्थिर चित्त होकर पौषधोपवास का पालन न करना तथा पौषध में आहार, शरीर सुश्रूषा, अब्रह्म तथा सावध व्यापार की अभिलाषा करना । (१२) अतिथि संविभाग व्रत - हमेशा और विशेष कर पौषध के पारणे के दिन पंचमहाव्रत धारी साधु एवं स्वधर्मी बंधु को यथाशक्ति भोजनादि देना व्यवहार अतिथि संविभाग व्रत है । अपनी आत्मा एवं शिष्य को ज्ञान दान देना या स्वयं पढ़ना, शिष्य को पढ़ाना तथा सिद्धान्तों का श्रवण करना और कराना निश्चय असंविभागव्रत है। पांच अतिचार - (अ) सचित्त निक्षेप - साधु को नहीं देने की बुद्धि से कपटपूर्वक सचित्त धान्य आदि पर अचित्त अन्नादि का रखना । ( ब ) सचित्त अपिधान - साधु को नहीं देने की बुद्धि से कपटपूर्वक अचित्त अन्नादि को सचित्त फलादि से ढंकना । (स) कालातिक्रम — उचित भिक्षा काल का अतिक्रमण करना । काल के अतिक्रम हो जाने पर यह सोचकर दान के लिये उद्यत होना कि अब साधुजी आहार तो लेंगे नहीं पर वे जान लेंगे कि यह श्रावक दातार है। (द) पर - व्यपदेश – आहारादि अपना होने पर भी न देने की बुद्धि से उसे दूसरे का बताना। (य) मत्सरिता — अमुक पुरुष ने दान दिया है तो क्या मैं कृपण या हीन हूं—ऐसे ईर्ष्या भाव से दान देने में प्रवृत्ति करना। मांगने पर कुपित होना या होते हुए भी नहीं देना । कषाय कलुषित चित्त से साधु को दान देना । एक सुश्रावक में इक्कीस गुणों की अपेक्षा रखी गई है – (१) अक्षुद्र – गंभीर स्वभावी, (२) रूपवान् — सांगोपांग (३) सौम्य प्रकृति – स्वभाव से विश्वसनीय, (४) लोकप्रिय – गुणसम्पन्नता से, (५) अक्रूर - क्लेश रहित, (६) भीरू — पाप भय, (७) अशठ - निष्कपट, (८) सदाक्षिण्य - परोपकार उत्सुक (६) लज्जालु - पाप संकोच (१०) दयालु — पर दुःख द्रवित, (११) मध्यस्थ—तटस्थ विचारक (१२) सौम्यदृष्टि – स्नेहालु (१३) गुणानुरागी – सद्गुण समर्थन, (१४) सत्कथक सुपक्षयुक्त, कथोपदेशक व न्यायी, (१५) सुदीर्घदर्शी – दूरदर्शिता (१६) विशेषज्ञ – हिताहित ज्ञाता, (१७) वृद्धानुगत — अनुभवियों का अनुगामी, (१८) विनीत – नम्र, (१६) कृतज्ञ – उपकार मानने वाला, (२०) परहितार्थकारी - सदा दूसरों का हित साधने वाला, एवं (२१) लब्धलक्ष्य— विद्याभ्यासी । श्रावकत्व के बारह व्रतों तथा इक्कीस गुणों का आदर्श आराधक बनने के लिए सतत यत्नशील रहना चाहिए। इस रूप में उसके चार विश्राम होंगे। (१) पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत तथा अन्य त्याग प्रत्याख्यान को अंगीकार करें। (२) दूसरा विश्राम होगा सामायिक, देशावंशिक व्रतों का पालन करूं एवं अन्य ग्रहण किये हुए व्रतों में रखी हुई मर्यादाओं का प्रतिदिन संकोच करता रहूँ और उनका सम्यक् पालन करूं । (३) अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्ण पौषध व्रत का सम्यक् प्रकार से पालन करूं । ( ४ ) अन्त समय में संलेखना अंगीकार कर आहार पानी को त्याग निष्चेष्ट रहते हुए और मरण की इच्छा न करते हुए रहूं - यह चौथा विश्राम होगा । १६६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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