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________________ हैं। शिक्षा के हेतु दास, दासी, पुत्र आदि को या नुकसान करते हुए चतुष्पद को आवश्यकता होने पर दयापूर्वक उनके मर्मस्थानों को चोट न लगाते हुए मारना सापेक्ष अर्थ बंध होता है जो श्रावक के लिये अतिचार नहीं है। (स) छविच्छेद-शस्त्रों से अंगोपांगों का छेदन करना छविच्छेद है। निष्प्रयोजन अथवा प्रयोजन होने पर भी निर्दयतापूर्वक हाथ, पैर, कान, नाक आदि का छेदन करना अतिचार रूप है। किन्तु प्रयोजन होने पर दयापूर्वक सामने वाले की भलाई के लिये चीर फाड़ ( डॉक्टरी) आदि सापेक्ष छविच्छेद है जो अतिचार नहीं होता । (द) अतिभार- द्विपद, चतुष्पद पर उसकी शक्ति से अधिक भार लादना आतिभार है। श्रावक को मनुष्य अथवा पशु पर क्रोध अथवा लोभवश निर्दयता के साथ अधिक भार नहीं धरना चाहिये । और न ऐसी वृत्ति (रोजगार) करनी चाहिये । सामान्यतया उठा सके उतना ही भार लादना चाहिये । श्रावक को चतुष्पदी सवारी पर चढ़ने का भी विवेक रखना चाहिये । (य) भक्तपान विच्छेद – निष्कारण निर्दयता के साथ किसी के आहार पानी का विच्छेद करना भक्त पान विच्छेद अतिचार है। श्रावक को इसका परिहार करना चाहिये। रोगादि निमित्त से, वैद्यादि के कहने पर या शिक्षा के हेतु खाना पीना न दिया जाय - वह अतिचार में शामिल नहीं है। बिना कारण किसी का रोजगार उजाड़ना या नियत समय पर वेतन आदि न देना इसी अतिचार में शामिल है। ( २ ) सत्याणुव्रत (स्थूल मृषावाद का त्याग ) दुष्ट अध्यवसायपूर्वक तथा स्थूल वस्तु विषयक बोला जाने वाला असत्य-झूठ स्थूल मृषावाद होता है। अविश्वास आदि के कारण स्वरूप इस स्थूल मृषावाद का श्रावक दो करण तीन योग से त्याग करता है। स्थूल मृषावाद पांच प्रकार का होता है- (अ) कन्या - वर सम्बन्धी झूठ, (ब) गाय, भैंस आदि पशु सम्बन्धी झूठ, (स) भूमि सम्बन्धी झूठ, (द) किसी की धरोहर दबाना या उसके सम्बन्ध में झूठ बोलना तथा (य) झूठी गवाही देना । सत्याणुव्रत के भी पांच अतिचार होते हैं - (अ) सहसाभ्याख्यान – बिना विचारे किसी पर मिथ्या आरोप लगाना। अनुपयोग अथवा असावधानी से बिना विचारे आरोप लगाना अतिचार है । जानते हुए इरादे के साथ तीव्र संक्लेश से मिथ्या आरोप लगाना अनाचार होता है तथा उससे व्रत भंग हो जाता है । (ब) रहस्याख्यान - एकान्त में सलाह करते हुए व्यक्तियों पर आरोप लगाना । एकान्त विशेषण होने से यह अतिचार पहले अतिचार से भिन्न है । इस अतिचार में संभावित अर्थ कहा जाता है। (स) स्व- दार मंत्र भेद - स्व- स्त्री के साथ एकान्त में हुई विश्वस्त मंत्रणा को दूसरे से कहना अथवा विश्वास करने वाली स्त्री, मित्र आदि की गुप्त मंत्रणा को प्रकाश में लाना । सत्य होते हुए भी यह बात लज्जा और संकोच पर प्रहार करती है अतः अतिचार है। इससे घात या आत्मघात की आशंका रहती है। यह अनर्थ परम्परा भी है सो त्याज्य है। श्रावक इसका ध्यान रखे । ( द ) मृषोपदेश - बिना विचारे अनुपयोग से या किसी बहाने से दूसरों को असत्य उपदेश देना । पीड़ाकारी वचन कहना या दूसरों को असत्य वचन बोलने को प्रेरित करना भी इसी अतिचार में शामिल है । कोई अपना संदेह निवारण करने आवे, उसे उत्तर में अयथार्थ स्वरूप कहना या सम्बन्ध जोड़ने आदि का उपदेश देना मृषोपदेश ही है । (य) कूट लेखकरण - झूठा लेख या लिखत लिखना, जाली दस्तावेज मोहर या हस्ताक्षर बनाना और प्रमाद तथा अविवेक से ऐसा करना अतिचार है । व्रत की अपेक्षा हो पर विवेक का अभाव रहे तो अतिचार होता है, वरना जानबूझ कर कूट लेख लिखना अनाचार है। १६५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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