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________________ आहार दिये जाने पर भी गुरु की आज्ञा प्राप्त किये बिना उसे भोगना गुरु अदत्तादान है। किसी भी क्षेत्र एवं वस्तु विषयक उक्त चारों प्रकार के अदत्तादान से सदा के लिये जीवन पर्यन्त तीन करण तीन योग से निवृत्त होना अदत्तादान विरमण रूप तृतीय महाव्रत है। ___ अदत्तादान विरमण महाव्रत रूप तृतीय महाव्रत की भी पांच भावनाएं इस प्रकार हैं- (१) साधु को स्वयं (दूसरों के द्वारा नहीं) स्वामी अथवा स्वामी से अधिकार प्राप्त पुरुष को अच्छी तरह जानकर शुद्ध अवग्रह (रहने के स्थान) की याचना करनी चाहिये, अन्यथा साधु को अदत्त ग्रहण का दोष लगता है। (२) अवग्रह की आज्ञा लेकर भी वहाँ रहे हुए तृणादि का ग्रहण करने के लिये साधु को आज्ञा प्राप्त करनी चाहिये। शय्यातर का अनुमति वचन सुनकर ही साधु को उन्हें लेना चाहिये अन्यथा वह बिना दी हई वस्त के ग्रहण करने एवं भोगने का दोषी बन जाता है। (३) साध को उपाश्रय की सीमा खोलकर एवं आज्ञा प्राप्त कर उसका सेवन करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि एक बार स्वामी के उपाश्रय की आज्ञा दे देने पर भी बार-बार उपाश्रय का परिमाण खोल कर आज्ञा प्राप्त करनी चाहिये। ग्लानादि अवस्था में लघुनीत, बड़ीनीत परिठवने, अवग्रह (उपाश्रय) की आज्ञा होने पर भी, याचना करनी चाहिये ताकि दाता का दिल दुखित न हो, (४) गुरु अथवा रलाधिक की आज्ञा प्राप्त करके आहार करना चाहिये। आशय यह है कि सूत्रोक्त विधि से प्रासुक ऐषणीय प्राप्त आहार को उपाश्रय में लाकर गुरु के आगे आलोचना कर और आहार दिखलाकर फिर साधु मंडली में या अकेले उसे खाना चाहिये। धर्म के साधन रूप अन्य उपकरणों का ग्रहण एवं उपयोग भी गुरु की आज्ञा से ही करना चाहिये। (५) उपाश्रय में रहे हुए समान आचार वाले संभोगी साधुओं से नियत क्षेत्र और काल के लिये उपाश्रय की आज्ञा प्राप्त करके ही वहां रहना एवं भोजनादि करना चाहिये अन्यथा चोरी का दोष लगता है। (४) मैथुन विरमण महाव्रत-देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी दिव्य एवं औदारिक काम-सेवन का तीन करण तीन योग से जीवन पर्यन्त का त्याग करना मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महाव्रत है। ___ मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महाव्रत की पांच भावनाएं इस प्रकार हैं –(१) ब्रह्मचारी साधु को आहार के विषय में संयत होना चाहिये। अति स्निग्ध, सरस आहार न करना चाहिये और न परिमाण से अधिक लूंस-ठूस कर ही आहार करना चाहिये। अन्यथा ब्रह्मचर्य की विराधना हो सकती है। मात्रा से अधिक आहार तो ब्रह्मचर्य के अतिरिक्त शरीर के लिये भी पीड़ाकारी होता है। (२) ब्रह्मचारी को शरीर की विभूषा अर्थात् शोभा-सुश्रूषा नहीं करनी चाहिये। स्नान, विलेपन, केश सम्मार्जन आदि शरीर की सजावट में दत्त-चित्त साधु सदा चंचल-चित्त रहता है और उसे विकारोत्पत्ति होती है, जिससे चौथे महाव्रत की विराधना भी हो सकती है। (३) स्त्री एवं उसके मनोहर मुख, नेत्र आदि अंगों को काम वासना की दृष्टि से नहीं निरखना चाहिये। वासना भरी दृष्टि के साथ उन्हें देखने से ब्रह्मचर्य का खंडित होना संभव है। (४) स्त्रियों के साथ परिचय न रखे। स्त्री, पशु, नपुंसक से सम्बन्धित उपाश्रय, शयन, आसन आदि का सेवन न करे, अन्यथा ब्रह्मचर्य का महाव्रत भंग हो सकता है। (५) तत्त्वज्ञ मुनि स्त्री-विषयक काम कथा न करे। स्त्री-कथा में आसक्त साधु का चित्त विकृत हो जाता है। स्त्री-कथा को ब्रह्मचर्य के लिये घातक समझकर इससे ब्रह्मचारी को सदा दूर रहना चाहिये। पूर्व-क्रीड़ित अथवा गृहस्थावस्था में भोगे हुए काम-भोग आदि का स्मरण १६१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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