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________________ हुई है। ऐसे वर्गों की काम लिप्सा एक प्रकार से सम्पूर्ण राष्ट्रीय जीवन पर भी बुरा असर डाल रही है । ऐसे विकृत होते वातावरण में संसार के व्यवहार को संशोधित करने की दृष्टि से विवाह व्यवस्था को व्यवस्थित करना तथा मूल रूप से ब्रह्मचर्य साधना की दिशा में गति करना आवश्यक हो गया है। मैं मानता हूं कि ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का, मूल है। एक ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर सहसा अन्य सब गुण नष्ट हो जाते हैं । किन्तु एक ब्रह्मचर्य की आराधना कर लेने पर अन्य सब गुण-शील, तप, विनय आदि व्रत आराधित हो जाते हैं। एक ब्रह्मचर्य की साधना करने से अनेक गुण स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं। जो शुद्ध भाव से पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वही सच्चा भिक्षु कहलाता है। ऐसा हित-मित भोजन करना चाहिये जो जीवन यात्रा एवं संयम यात्रा के लिये उपयोगी हो सके और जिससे न किसी प्रकार का विभ्रम हो और न धर्म की शना । साधक को कमल पत्र के समान निर्लेप और आकाश के समान निरवलम्ब होना चाहिये । मैं ब्रह्मचर्य की अवधारणा मूलरूप में यह मानता हूं कि मैं अपने मन, वचन एवं काया के समस्त योगों को सांसारिक वासनाओं से हटाकर आत्म चिन्तन में लगा दूं। न तो वैक्रिय शरीर के देव सम्बन्धी भोगों का मन वचन काया से स्वयं सेवन करूं, न दूसरे से कराऊं और न उनकी अनुमोदना करूं और इसी प्रकार मैं औदारिक शरीर के मनुष्य, तिर्यंच सम्बन्धी काम भोगों का भी त्याग करूं ताकि मैं अट्ठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन कर सकूं। ब्रह्मचर्य के दस समाधि स्थानों का भी मैं ध्यान रखूं तथा अपने-आपकी काम वासनाओं से रक्षा करूं। दस समाधि स्थान इस प्रकार हैं- (१) जिस स्थान में स्त्री, पशु और नपुंसक रहते हों, वहां ब्रह्मचारी न रहें, (२) वह स्त्री सम्बन्धी कथा न करे तथा जिस स्थान पर स्त्री बैठी हो उस स्थान पर अन्तः मुहुर्त पहले न बैठे, (३) स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे ( ४ ) स्त्री के मनोहर व सुन्दर अंग-प्रत्यंगों को न देखे, (५) पर्दे, दीवाल आदि के अन्दर होने वाले स्त्रियों के विषयोत्पादक शब्द, गीत, हास्य या विलाप को न सुने, (६) पहले भोगे हुए काम भोगों का स्मरण न करे, (७) सरस और कामोत्तेजक आहार न करे, (८) शास्त्रोक्त परिमाण से अधिक आहार न करे, (६) स्नान, मंजन आदि करके शरीर को अलंकृत न करे तथा (१०) सुन्दर शब्द, रूप रस, गंध और स्पर्श में आसक्त न बने । ब्रह्मचर्य - शील की आराधना करते हुए मैं स्त्रियों के रूप लावण्य, विलास, हास्य, मधुर वचन, काम चेष्टा एवं कटाक्ष आदि को अपने मन में तनिक भी स्थान नहीं दूंगा और रागपूर्वक देखने का प्रयत्न भी नहीं करूंगा। मैं स्त्रियों का चिन्तन एवं कीर्तन भी नहीं करूंगा। क्योंकि मैं जानता हूं कि ब्रह्मचर्य के शुद्ध आचरण से ही उत्तम श्रमण होता है । ब्रह्मचर्य पालने वाला ही ऋषि है, वही मुनि है, वही साधु है और वही भिक्षु है। मन, वचन, काया का गोपन करने वाले मुनियों को चाहे वस्त्राभूषणों से अलंकृत अप्सराएं भी संयम से विचलित नहीं कर सके तब भी उन्हें एकान्तवास का ही आश्रय लेना चाहिये – यही अत्यन्त हितकारी और प्रशस्त है । टूटे हुए हाथ पैर वाली और कटे हुए कान नाक वाली सौ वर्ष की बुढ़िया का संग भी ब्रह्मचारी के लिये वर्जनीय है । साधु स्वयं स्थिर चित्त हो फिर भी पुरुष व महिला की साक्षी के बिना आर्या के साथ पठन-पाठन आदि आर्या का सम्पर्क भी ठीक नहीं है। जैसे आग के पास रहा हुआ घी पिघल जाता है, उसी प्रकार साधु संसर्ग से आर्या का चित्त विकृत होकर विचलित हो सकता है। मैं जान चुका हूं कि अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है और महादोषों का पुंज रूप है। दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले ब्रह्मचारी पुरुष को देव, दानव गंधर्व, यक्ष, राक्षस, और किन्नर आदि १५४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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