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________________ जीव शरीरधारी होते हैं। इन शरीरों में अधिकांश अक्षम शरीर होते हैं और जिनके शरीर कार्यक्षम होते हैं उनमें भी कई दुर्बल होते हैं तो कुछ सबल ? कइयों के पास अपनी रक्षा के साधन नहीं होते तो कुछ के पास रक्षा के साधन और सामर्थ्य दोनों इतनी मात्रा में होते हैं कि वे सिर्फ अपनी रक्षा ही नहीं कर सकते हैं बल्कि दुर्बलों के अधिकार व पदार्थ छीन कर उनको संत्रास भी दे सकते हैं। शरीर होने से निर्वाह की आवश्यकता होती है तथा निर्वाह के साधन अपार नहीं होते, सीमित होते हैं। निर्वाह के वे साधन, समानता से वितरित नहीं होते अथवा विकेन्द्रित नहीं होते। सशक्त शरीरधारी अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें केन्द्रित कर लेते हैं, संचित बना लेते हैं। इस संचय वृत्ति से प्राणियों के बीच निर्वाह के साधनों के लिये संघर्ष और टकराव पैदा होते हैं। यही संघर्ष सत्ता और सम्पत्ति के शोषण व संचय की अंधी गलियों से गुजरता हुआ महायुद्धों के विध्वंस तक पहुंच जाता है। मैं अनुभव करता हूँ कि इस दृष्टि से अहिंसा व्यक्ति के आचरण को और उसके माध्यम से सम्पूर्ण सामाजिक व्यवहार को सदाशयमय बनाना चाहती है। कोई भी प्राणी किसी भी दूसरे प्राणी के किसी भी प्राण को कष्टित नहीं करे इसका आशय यही होगा कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वार्थों या हितों अथवा अपनी निर्वाह योग्य आवश्यकताओं को इतनी सीमित बनादे कि उसको किसी भी स्तर पर टकराव न करना पड़े अथवा टकराव न झेलना पड़े। इस वृत्ति से संचय की कोई गुंजाइश नहीं रह जायगी। यदि संचय नहीं होगा तो संघर्ष भी नहीं होगा और संघर्ष के अभाव में प्राप्त पदार्थों के सम-वितरण की ओर सबके प्रयास प्रारंभ होंगे। सहृदयता ऐसे सम-वितरण की आत्मा बन जायगी। मैं अहिंसा के सिद्धान्त की पृष्टभूमि में थ्योरी क्या है, उसका भी जिक्र करदूं। यह शाश्वत सत्य है कि सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता। सभी जीवों को अपनी आयु प्रिय है। वे सुख चाहते हैं और दुख नहीं चाहते। उन्हें वध अप्रिय लगता है और जीवन प्रिय। इसी संदर्भ में भगवान् महावीर ने भी कहा है—मैं कहता हूं कि भूतकाल में जो तीर्थंकर हुए हैं, वर्तमान काल में जो तीर्थंकर हैं और भविष्य में जो तीर्थंकर होंगे, उन सभी ने यही कहा है, कहते हैं और कहेंगे कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिये, उन पर शासन नहीं चलाना चाहिये, उन्हें अधीन नहीं बनाना चाहिये, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिये तथा उन्हें प्राणों से वियुक्त नहीं करना चाहिये। यह धर्म ध्रुव, नित्य और शाश्वत है। ___ मैं सबसे पहले अपने लिये सोचना चाहता हूं कि क्या मैं जीना नहीं चाहता? क्या मुझे सुख प्रिय नहीं है ? क्या मुझे दुःख या वध प्रिय हैं ? मेरा यही उत्तर होगा कि मुझे जीवन और सुख प्रिय है, दुःख और वध अप्रिय हैं। तो मुझे यही सोचना है कि जो मुझे प्रिय है वहीं सभी जीवों को प्रिय है तथा जो मुझे अप्रिय है, वह सभी जीवों को अप्रिय है। इसके साथ ही मैं निश्चय करना चाहता हूं कि मैं अन्य प्राणियों के साथ वैसा ही व्यवहार करूंगा, जो मुझे और उन्हें प्रिय लगता है। अप्रिय व्यवहार मैं नहीं करूंगा। इसी भावना की भूमिका पर अहिंसामय आचरण का श्री गणेश किया जा सकता है। ___ तदनन्तर मेरे मन, वाणी तथा कर्म में निरन्तर अहिंसा का सुप्रभाव अभिवृद्ध होता जायगा। विश्व के सभी जीवों की रक्षा रूप दया को मैं हृदय में बसा लूंगा । मैं जानता हूं कि दया की आराधना से जीवों के दुःख और पापों का शमन होता है तथा सभी का कल्याण सधता है। मैं इस सत्य की १४४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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