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________________ क्योंकि आस्था की कोई सीमा नहीं होती - वह असीम बन सकती है। अतः आस्था की अनिवार्यता यह मानकर स्वीकार करनी होगी कि जहाँ तर्क की गति समाप्त हो जाती है, वहीं से आस्था की गति आरंभ होती है । आस्था की अनिवार्यता मैं इस विश्लेषण के साथ आज्ञापालन के महत्त्व तथा आस्था की अनिवार्यता के प्रश्न को सुलझाना चाहता हूँ। आज्ञापालन में मनुष्य की स्वतंत्रता का हनन होना तब माना जायगा, जब बुद्धि या तर्क से सुलझाई जा सकने वाली समस्याओं में भी आज्ञापालन को ही प्रथम और अन्तिम महत्त्व दिया जाय। किन्तु जहाँ बुद्धि की पहुँच न हो और जहाँ पहुँच कर तर्क भी थम जाय, ऐसे आध्यात्मिक रहस्यों के क्षेत्र में आत्मानुभवी एवं समतादर्शी महापुरुषों की आज्ञाओं का पालन एक साधक के लिये अपने आत्म-विकास का सबल माध्यम हो सकता है। कहा गया है कि संसार को जानने के लिये संशय अनिवार्य है और संशय तर्क को जन्म देता है किन्तु समाधि (आत्म- सुख) के लिये आस्था अनिवार्य है । मैं अपने व्यावहारिक अनुभव का भी चिन्तन करता हूं तो लगता है कि वहाँ पर भी व्यक्ति की विश्वसनीयता का महत्त्व कम नहीं है। पूरा विश्वास उपज जाने पर अंधेपन से भी उस व्यक्ति का आश्रय ले लिया जाता है अपने गहरे विश्वास के कारण। फिर उन महापुरुषों की आज्ञाओं पर भला आस्था बलवती क्यों नहीं बनेगी, जिनकी आज्ञाएँ मूलतः और पूर्णतः मेरे ही व्यापक हित के लिये हैं। यह नहीं कि मैं उन आज्ञाओं को समझं ही नहीं । नहीं समझंगा तो उनका पालन ही कैसे करूंगा ? लेकिन समझने साथ अपनी गहरी आस्था को उनके साथ जोडूं, क्योंकि उनका वस्तुविषय कम से कम अभी मेरे लिये अगम्य है। किन्तु आस्था मजबूती से जुड़ेगी तो वह अगम्यता मेरे लिये बाधक नही बनेगी। बाधक क्या, मैं उस अगम्यता में भी साहस के साथ प्रवेश कर जाऊँगा, क्योंकि आस्था मेरा सुदृढ़ संबल हो जायगी । कल्पना करें कि मैं बम्बई कभी नहीं गया, लेकिन मेरा एक विश्वसनीय मित्र कई बार बम्बई जा चुका था तो क्या मैं अपने उस मित्र का निर्देशन लेकर पहली बार ही सही मगर भरोसे से बम्बई नहीं जा सकता हूँ ? निर्देशन हो या आज्ञा - अधिक अनुभवी पर विश्वास किया ही जाता है। यह सामान्य बात है । किन्तु गहन आध्यात्मिकता के क्षेत्र में तो आस्था ही मुख्य बात होगी । किसी स्थूल उपलब्धि की बात हो या सांसारिकता का विषय हो तो तर्क से ही काम चला सकते हैं । संसार की बातों में तो तर्क उचित भी रहता है क्योंकि तर्क के आधार पर नई-नई जानकारियां होती हैं। संसार के क्षेत्र में संशय हो या असन्तोष — उससे भौतिक विषयों का ज्ञान-विज्ञान बढ़ता है। यह स्थूल उपलब्धियों की बात है । किन्तु जहाँ अपने ही आत्मस्वरूप का ज्ञान करना है अथवा अपने भीतर अक्षय सुख की खोज करनी है तो इन सूक्ष्म विषयों में तर्क का कोई काम नहीं रहता । केवल आस्था का काम रहता है कि उन महापुरुषों की आज्ञा मानी जाय जिन्होंने स्वयं ने अपने आत्मस्वरूप को हस्तामलकवत् जाना है और अक्षय सुख से स्वयं को परमानन्द स्वरूप बना लिया है । आत्मानुभूति के क्षेत्र में आस्था की अनिवार्यता है । मैं आत्मानुभूति के क्षेत्र को सुखानुभूति का क्षेत्र मानता हूँ। सांसारिक सुखों में सच्चाई नही होती — वे सुखाभास मात्र होते हैं। आत्मा का सुख ही सच्चा सुख होता है — ऐसा सुख जिससे १३८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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