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________________ मैं भी विज्ञाता हूँ क्योंकि वीतराग देवों का ज्ञान मुझे आचार्य परम्परा से मिला है किन्तु मुझे देखना है कि विज्ञाता होकर भी मैं क्या कर रहा हूँ ? __ मैं दृष्टा भी हूँ क्योंकि मुझे अपने आप को देखने की अभिलाषा है। यह जानना और देखना ही मुझे प्रेरित कर सकेगा कि मुझे जो ज्ञान लाभ मिला है उसे मैं अपने सम्पूर्ण हृदय से मानता हूँ या नहीं? क्योंकि मेरा उसे मानना ही मुझे उसके लिए करने की अनुप्रेरणा दे सकेगा। ___मैं विज्ञाता हूँ, दृष्टा हूँ। मैं जान गया हूँ कि मेरे भीतर ज्ञान और विज्ञान का महासागर तरंगित हो रहा है, उसमें अनन्त सीपियाँ अपना मुंह बन्द किये पड़ी हैं तथा उनमें अनन्त अमूल्य मोती भरे हुए हैं। और मैं यह सब देख भी रहा हूँ और यह भी देख रहा हूँ कि मैं उन अमूल्य मोतियों को पाने के लिए क्या कुछ पुरुषार्थ कर रहा हूँ। मैं यह भी देख रहा हूँ कि क्या मेरा पुरुषार्थ उन अमूल्य मोतियों को निकाल लाने के कठिन लक्ष्य के अनुकूल भी है या नहीं? इस ओर मुझे अभी बहुत गहराई से देखना है ताकि मैं अपने पुरुषार्थ को सक्रिय बना सकूँ। उस कठिन लक्ष्य के अनुकूल अधिक सक्रिय बन सकू। आत्मा का ज्ञाता व दृष्टाभाव मैं विज्ञाता हूँ, द्रष्टा हूँ, इस कारण मैं ज्ञान का स्मरण करता हूँ, विशेष ज्ञान प्राप्त करने की चेट करता हूँ और उस ज्ञान के प्रकाश में अपने आचरण की सक्षमता का मूल्यांकन करना चाहता हूँ। क्योंकि मूल्यांकन की इस कसौटी पर कसा जाकर ही मेरे ज्ञान-विज्ञान का मापदंड स्थापित होगा कि वह हीरों की खान खोदने के लक्ष्य के प्रति चलने वाले तीसरे आदमी जैसा है जिसने ज्ञान लेने के साथ ही अपना अटल विश्वास दिखाया, विश्वास के सम्बल से अथक पुरुषार्थ किया और सफलता को अपनी बाहों में भर ली। मेरे भीतर में सवाल उठता है कि यह मूल्यांकन करेगा कौन? मेरा 'मैं' जान गया है कि साध्य क्या है और उसे किन साधनों से प्राप्त किया जा सकेगा और समझिये कि वह उन साध्य-साधनों को मान भी गया है तथा कुदाली उसने अपने हाथ में पकड़ भी ली है, लेकिन वह कुदाली चलायेगा। इसे कौन देखेगा कि 'मैं' स्वयं उस कुदाली को कितने वेग से चला रहा हूँ और जमीन किस कदर खुद रही है ? कौन करेगा उसके पुरुषार्थ का मूल्यांकन ? मेरे 'मैं' के भीतर तब एक जिज्ञासा जागती है। उसकी अन्दर की आंख जैसे अन्दर ही खुल पड़ती है। वह अपने को ही अपनी आंख से देखता है और उसके अन्दर एक बिजली सी कौंध जाती है। अरे, यह तो मैं ही मैं को देख रहा हूँ फिर समस्या कहाँ रह जाती है ? मेरी करनी को मैं ही देखूगा-मेरे पुरुषार्थ का मैं ही मूल्यांकन करूंगा। क्योंकि मैं ही मेरा दृष्टा भी हूँ। तब मेरी आन्तरिकता के कपाट खुलते है कि मैं विज्ञाता हूँ, दृष्टा हूँ। मेरा विज्ञान अपनी किरणें फैंकने लगा है और मेरे भीतर की आंख चारों ओर देखने लगी है। यह 'चारों ओर' बाहर का चारों ओर नहीं, भीतर का चारों ओर है, जिसे चर्म चक्षु नहीं, भीतर के 'ज्ञान चक्षु ही देख सकते हैं। ये ज्ञान चक्षु भीतर ही भीतर देखते हैं, किन्तु भीतर का विश्व इतना विराट् है कि वे देखते चले जाते हैं देखते चले जाते हैं फिर भी क्षितिज के समीप नहीं पहुंच पाते हैं। क्षितिज विस्तीर्ण से विस्तीर्ण होता हुआ दिखाई देता है। यह विराट् विश्व ही मेरे 'मैं' का अन्तर्जगत् है - आत्मा का अन्तर्जगत है। १३४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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