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________________ कहने का अर्थ यह है कि जीव अपने आनन्द के अनुभव का आरोपण सर्वप्रथम अन्य में ही करता है—पदार्थों में ही उस आनन्द को खोजता और उसे पा लेने का भ्रम पालता है। वह महसूस करता है कि जब वह मधुर संगीत सुनता है, सुन्दर दृश्य देखता है, सुगंधमय वातावरण में रमण करता है, सुस्वादकारी व्यंजनों को चखता है, सुखद संस्पर्श से आह्लादित होता है अथवा इन सुखों की कल्पना भी करता है तो उसे आनन्द मिलता है। तो क्या उसके इस आनन्दानुभव को सत्य कहा जायगा? किन्तु, सत्यासत्य का निर्णय वह कई चरणों से गुजरने के बाद ही कर पाता है। उस समय तो वह क्षणिकता को भी समझ नही पाता और न ही उस आनन्द की नश्वरता को ही वह हृदय में उतार पाता है। उसकी मनोदशा तो एक मदमत्त जैसी होती है कि जब वैसा आनन्द मिल रहा है तो उसे मतिभ्रम हो जाता है। वह उसमें झूमने लगता है और जब वही आनन्द टूटता है तो वह क्रुद्ध होकर उसे फिर से पा लेने के लिये दौड़ लगाने लगता है। यदि वह दौड़ की थकान में सत्य को पाने की ओर न मुड़ सके तो उसी दौड़ धूप में उसका अमूल्य जीवन विनष्ट हो जाता है। भौतिकता वाले भोगों में फंस जाने तथा अन्य पदार्थों में रमण करने की जीवात्मा की इस अज्ञान दशा को आत्मा का विभाव माना गया है। शाब्दिक अर्थ में विभाव वह जो स्वभाव से विपरीत हो। इस पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि फिर स्वभाव क्या होता है? यदि आनन्द का ऐसा अनुभव आत्मा का विभाव है तो आत्मा का स्वभाव क्या होगा एवं उस आनन्द का अनुभव कैसा होगा? शास्त्रों में स्वभाव को ही धर्म कहा गया है—वत्थु सहावो धम्मो। जिस वस्तु का जैसा मूल स्वभाव है, वही उसका धर्म होगा। उस धर्म पर अधर्म तब हावी होता है जब धर्म की मौलिक शक्ति क्षीण हो जाती है। तब स्वभाव पर विभाव हावी हो जाता है। एक लकड़ी का टुकड़ा पानी की सतह पर तैरता है—यह उसका मूल स्वभाव है। उस टुकड़े के साथ एक लौह खंड बांध दिया जाय तो वह टुकड़ा तैरने की बजाय पानी में डूब जायगा- उसे उसका विभाव कहना होगा। स्वभाव पर जो विकृतियों के लेप चढ़ते हैं, उन लेपों का भार स्वभाव को छिपा देता है और वे विकृतियाँ ही विभाव के रूप में सक्रिय दिखाई देती है। लकड़ी के टुकड़े का तैरना स्वभाव, उसका लौह खंड के भार से डूब जाना उसका विभाव हुआ तो विभाव से स्वभाव में जाने की प्रक्रिया भी स्पष्ट हो गई कि उसके भार को हटा लिया जाय। एक तथ्य और कि स्वभाव में रमण करने से सात्विक आनन्द की प्राप्ति होती है। जो परिवर्धित होता हुआ सत्य एवं शाश्वत आनन्द की स्थिति तक पहुंचता है। दूसरी ओर, विभाव में भोगा जाने वाला आनन्द क्षणिक, नश्वर तथा कष्टान्त वाला होता है। विभाव से मिलने वाले आनन्द के दुष्परिणामों को योग कर ही सत्य आनन्द के अनुसंधान की ओर गति प्रखर बनती है। विभाव से स्वभाव में लौटने की आकांक्षा भी तभी बलवती होती है। अब आत्मा के स्वभाव एवं विभाव की चर्चा करें। यह चर्चा शब्दों की कम और अन्तरानुभव की अधिक होती है—यह मानकर चलना चाहिये। विभाव की गति-स्थिति को तो सामान्यतः सभी मानव जानते पहिचानते हैं। उन्हें समझानी है स्वभाव की अवस्था। विकृत से विकृत एवं पतित से पतित मानव के अन्तरंग में कुछ लहरें ऐसी होती हैं जो जब चलती हैं तो वैसे (X)
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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