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________________ समीक्षण कहलाता है और यह प्रक्रिया जब अपनी ही आत्मा के साथ चलेगी तब वह आत्म-समीक्षण की प्रक्रिया होगी। __मैं आत्म-समीक्षण की अपनी इस प्रक्रिया में देखने के साथ जो 'सम' शब्द लगा हुआ है उसको विशेष महत्त्व देना चाहता हूं। मेरा देखना समतापूर्वक होगा—पक्षपातपूर्वक अथवा हठाग्रहपूर्वक नहीं। अपनी ही वृत्तियों को समभावपूर्वक देखना यद्यपि बड़ा कठिन कार्य होगा, फिर भी अभ्यासपूर्वक जब मैं ऐसा करने लगूंगा तब अपनी चित्तवृत्तियों को सम्यक् रीति से देखना मेरी साधना का एक अनिवार्य अंग बन जायगा। जैसे किसी वस्त्र को धोने से पहले यह जान लेना आवश्यक होता है कि उस पर कितने और किस प्रकार के दाग लगे हुए हैं। और उनको धोने के लिये किस साधन से किस प्रकार का प्रयास करना पड़ेगा, उसी प्रकार आत्म-स्वरूप की परिशुद्धि की दृष्टि से यह आत्मसमीक्षण अनिवार्य रूप से मुझे करना ही होगा। इसके बिना मेरा उसे शुद्ध बनाने का प्रयास अधूरा ही रहेगा तथा अविचारणा के साथ उसके विफल हो जाने की भी पूरी आशंका बनी रहेगी। मैं आत्म-समीक्षण के माध्यम से अपनी आत्म-वृत्तियों का सम्यक् एवं सूक्ष्म अवलोकन करता रहूंगा और यह जानते रहने की चेष्टा करूंगा कि मेरे मन पर किस प्रकार की अप्रशस्त वृत्तियों ने आक्रमण कर रखा है ? मन के स्वच्छ पटल पर कितने-कितने और कैसे-कैसे चिकने दाग लगे हुए हैं? वह कलुषितता कितनी गहरी है तथा उसे धोने के लिये मुझे साधना किस रूप में ढालनी होगी? इन सब प्रश्नों पर मुझे गहरा चिन्तन करना होगा और आत्मदमन के उपायों से मन की चादर को धोनी होगी। आत्म-समीक्षण इस प्रकार मेरे आत्म-विकास के लिये एक अमूल्य साधन सिद्ध होगा क्योंकि समीक्षण से स्वरूप दर्शन की निरन्तरता मेरे सामने बनी रहेगी। किन्तु आत्म-समीक्षण की उपयोगिता इस स्तर तक ही हो ऐसी बात नही है। आत्म-समीक्षण की उपयोगिता मेरी आत्म-विकास की महायात्रा में अन्त तक बनी रहेगी। स्वरूप दर्शन की अत्युच्च पराकाष्ठा तक यह प्रक्रिया मुझे असीमता में रूपान्तरित करती रहेगी। अभी प्रारंभ में तो यह मेरे लिये मात्र निर्देशक का ही काम करेगी किन्तु बाद में तो समीक्षण वृत्ति मेरे मन-वचन एवं कर्म की समस्त योग क्रिया का केन्द्र ही बन जायगी। ___ मैं मानता हूं कि आत्म-समीक्षण कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं होती है। यह मेरी अन्तर्प्रज्ञा के चक्षुओं को उघाड़ देगी। ज्ञान-चक्षुओं से आन्तरिकता के निरीक्षण-परीक्षण की कोई सीमा नहीं होती है जबकि बाहर के चक्षुओं की अपनी दृष्टि-सीमा होती है। स्वरूप दर्शन की उत्कृष्टता के साथ निरीक्षण-परीक्षण की यह सीमा निरन्तर फैलती ही जाती है और ज्ञान चक्षुओं का प्रकाश बढ़ता ही जाता है। यह प्रकाश ही तब मेरा आत्म-प्रकाश बन जायगा। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि मेरी यह आत्म-समीक्षण की प्रक्रिया समत्वपूर्वक ही प्रारंभ होनी चाहिये तथा समत्वपूर्वक ही चलती भी रहनी चाहिये। सम्यक्त्व और समताभाव इस प्रक्रिया के आधारगत बिन्दु होने चाहिये। जैसे कि किसी मधुर खाद्य पदार्थ की तरफ मेरे मन की अत्यधिक आसक्ति बढ़ी तो मैं उस आसक्ति से दूर हटने के लिये उस खाद्य पदार्थ का इच्छापूर्वक त्याग ही कर दूंगा। इसके साथ ही अपने मन को ऐसा कठोर निर्देश भी दूंगा कि वह फिर से ऐसे आकर्षण के प्रति आसक्त और लिप्त न हो। यह निश्चित है कि १२१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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