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________________ मुझे याद है कि तभी मेरे अन्तःकरण में मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का द्वन्द्व छिड़ गया था। प्रकाश के प्रकट होते ही अंधकार में हड़कम्प मच गया था। मेरी शनैः शनैः जागती हुई चेतना ने अंधकार में फैले भय को महसूस किया था—मिथ्यात्व का खोखलापन जाहिर होने लगा था। अपनी चेतना की जागृति के बाद मिथ्यात्व का हौंसला भी ढीला पड़ने लगा था। उसकी आक्रामक शक्ति कमजोर होने लगी थी। सम्यक्त्व की प्रकाश किरणों की उपस्थिति में मेरी चेतना को विश्वास होने लगा कि अब तक मिथ्यात्व को पकड़ कर वह जो अपने को निश्चिंत और सुखी मान रही थी, भ्रमपूर्ण था। और इस प्रकार उसका भ्रम टूटने लगा था। ___ मैं धीरे-धीरे सम्यक्त्व का स्वरूप समझने लगा। जैसे कमजोर नजर वाला चश्मा लगा कर स्पष्ट देखने लग जाता है, वैसे ही उस अंधकार में सम्यक्त्व का जो चश्मा मेरी दृष्टि पर चढ़ा तो उससे मिथ्यात्व का मारक स्वरूप भी मुझे दिखाई देने लगा और सम्यक्त्व का तारक स्वरूप भी। विशद्ध किये हुए मिथ्यात्व के पुदगलों से मुझे द्रव्य सम्यक्त्व मिला और केवली प्ररूपित तत्त्वों में जो श्रद्धा जमी, उससे मुझे भाव-सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। द्रव्य एवं भाव सम्यक्त्व की उपस्थिति से मेरे आत्म स्वरूप को विशुद्ध से विशुद्धतर बनाने का एक सुव्यवस्थित क्रम भी तब चल पड़ा। इसी क्रम से मेरी आशा बंधी कि अब मेरी आत्मा गुणस्थानों के उत्कृष्ट सोपानों पर चढ़ने लगेगी और एक दिन मोक्ष रूप परम सुख को प्राप्त कर लेने का सामर्थ्य भी जुटा सकेगी। तब मझे सम्यक्तत्र के विविध रूपों की भी अनुभूति होने लगी। मैंने जाना कि सम्यक्त्व द्रव्य रूप भी होता है और भाव रूप भी। पौद्गलिक परिणमन उसका द्रव्य रूप है तो सम्यक्त्व तत्त्वों में सम्यक् अभिरुचि के विकास से उसका भाव रूप बनता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व को निश्चय एवं व्यवहार के दो रूपों में भी देख सकते हैं। आत्मा का वह परिणाम जिसके होने से ज्ञान शुद्ध होता है, वह निश्चय सम्यक्त्व कहलाता है। सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म में विश्वास करने का नाम व्यवहार सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व के कारणों को भी व्यवहार सम्यक्त्व का ही नाम दिया जाता है। सम्यक्त्व का एक अन्य स्वरूप नैसर्गिक एवं आधिगमिक संज्ञाओं से भी जाना जाता है। पूर्व क्षयोपशम के कारण बिना गुरु-उपदेश के स्वभाव से ही वीतराग-दृष्ट भावों को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और नाम आदि निक्षेपों से जान लेना तथा श्रद्धा करना नैसर्गिक सम्यक्त्व है जैसा कि मरूदेवी माता को हुआ था। इसका आधिगमिक सम्यक्त्व गुरु आदि के उपदेश से अथवा अंग उपांग आदि के अध्ययन से जीवादि तत्त्वों पर रुचि एवं श्रद्धा होना कहलाता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व का स्वरूप पौद्गलिक तथा अपौद्गलिक माना गया है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को पौद्गलिक सम्यक्त्व कहते हैं क्योंकि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में समकित मोहनीय के पुद्गलों का वेदन होता है। किन्तु अपौद्गलिक सम्यक्त्व में समकित मोहनीय का सर्वथा नाश अथवा उपशम हो जाता है, उसका वेदन नहीं होता है। यह क्षायिक और औपशमिक रूप सम्यक्त्व होता है। ___एक अन्य दृष्टि से सम्यक्त्व को कारक, रोचक एवं दीपक रूप में भी परिभाषित किया गया है। जिस सम्यक्त्व के प्रकट होने पर चारित्र में परिणति हो, अथवा जिस आचरण से सम्यक्त्व का आविर्भाव हो, जो स्वयं में चारित्र का पालन करता हो व दूसरों को प्रेरित करता हो उस समय उसका कारक रूप दिखाई देता है। रोचक सम्यक्त्व वह है जिसमें आत्मा सदनुष्ठान (चारित्र) में रुचि तो लेती है लेकिन स्वयं सदनुष्ठान (चारित्र) का आचरण नहीं कर पाती है। यह रोचक रूप चौथे ११३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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