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________________ वर्गीकरण के अनुसार जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं- ( १ ) औपशमिक — प्रदेश और विपाक, दोनों प्रकार से कर्मों के उदय को रोक देने से सम्यक्त्व और चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम भाव से जो सहित होते हैं, (२) क्षायिक – घनघाती - कर्मों का सर्वथा क्षय कर लेने पर क्षायिक भाव प्रकटाने वाले जीव। (३) क्षायोपशमिक – जो उदय में आये हुए कर्म का क्षय करते हैं तथा अनुदीर्ण अंश का उपशम करते हैं। (४) औदयिक भाव – जो यथायोग्य समय पर उदय में प्राप्त आठ कर्मों का अपने-अपने स्वरूप से फल भोगते हैं तथा (५) पारिणामिक भाव, जो कर्मों के उदय, उपशम आदि से निरपेक्ष भाव स्वाभाविक तौर पर धारण किये रहते हैं। यह परिणमन जीवत्व भव्यत्व तथा अभव्यत्व के रूप में स्था । ई होता है। अर्थात – जिसके कारण मूल स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन न हो, किन्तु स्वभाव में ही परिणत होते रहना पारिणामिक भाव है । मुझ जीव एवं मेरे से विपरीत अजीव में पर्यायों का परिवर्तन अर्थात् परिणमन एक महत्त्वपूर्ण क्रिया होती है। इस परिणमन क्रिया के कारण एक पर्याय छोड़ कर नवीन पर्याय धारण की जाती है। जीव में यह पर्याय - नवीनता, गति, इन्द्रिय, कषाय, लेश्य, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और वेद के अन्तर से आती है तो अजीव तत्त्व में बन्धन, गति, संस्थान, भेद, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु एवं शब्द के अन्तर से आती है। इसी संदर्भ में मैं सोचूं तो जीव रूप से मैं भी द्रव्य हूं तो अजीव धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुदगल के विभेद से भी द्रव्य ही है । गुण की अपेक्षा से द्रव्य तथा परिणमन की अपेक्षा से द्रव्य पर्याययुक्त होता है । मैं जीव द्रव्य हूँ जो गुण रूप से सदा शाश्वत रहने वाला हूँ किन्तु पर्याय रूप से मैंने भिन्न-भिन्न जीवनों में भिन्न-भिन्न शरीर प्राप्त किये तथा अलग-अलग रूप में सम्बोधित किया गया, उस कारण तथा एक ही जीवन में भी अपने ज्ञान, उपयोग आदि भावों की दृष्टि से परिणमन एवं परिवर्तन होते रहते हैं जो पर्याय रूप होते हैं। 'मैं' हूं—यह अनुभूति ही मेरे जीव होने का प्रमाण है और यदि मैं अपने आत्मतत्त्व में संशय करता हूं तो वह संशय भी संशयित तत्त्व के अस्तित्व को ही प्रमाणित करता है । फिर जीवित शरीर और मृत शरीर के बीच किस शक्ति का अन्तर रहता है ? वह शक्ति ही आत्मा है। इसलिये मैं आत्म रूप हूँ — सरीर रूप नहीं। शरीर अजीव है— उसका जीवन मेरी आत्मा के संयोग से है – स्वतंत्र रूप से नहीं। मैं जब तक वर्तमान शरीर में हूँ तब तक ही शरीर सक्रिय है। मैं अपना आयुष्य समाप्त होने पर जब उसको छोड़ दूंगा तो यह निर्जीव हो जायगा और नष्ट कर दिया जायगा । आशय यह कि मेरे और अजीव शरीर के बीच में या सशरीर मेरे और संसार के अन्य पदार्थों के बीच में जो सम्बन्ध और सम्पर्क है, उसका संचालक मैं हूं - अजीव नहीं । जीव और अजीव के संचलन में कर्त्ता की स्थिति जीव की ही होती है । जीव के नाते मैं ही संसार में दिखाई देने वाली रचनाओं का रचयिता तथा विभिन्न निर्माणों का निर्माता हूँ । किन्तु मेरे द्वारा सब प्रकार की रचनाएँ तथा निर्माण तभी संभव होता है, जब मैं सशरीर होता हूँ। इस शरीर के साथ बंधे होने की मेरी विवशताएँ भी अनेक हैं। मैं मोह की नींद में सोता रहूं। तो यह जड़ तत्त्व ही अपने मोहक रूपों में मुझे मेरे मन और मेरी इन्द्रियों को भरमा देते हैं। मैं अपने निजत्व में तभी आ सकता हूँ जब मैं जाग जाता हूँ और अपने शरीर, अपने वचन तथा अपने मन व अपनी इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में ले लेता हूँ । १००
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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