SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुफल यही होता है कि समता का रूप धूमिल होने लगता है। ममता का नग्न नृत्य कुटिल होता जाता है जिससे व्यक्ति के विकास एवं समाज के सुधार का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। मेरी सम्मति में आज के युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि मूल्यों में परिवर्तन हो। अर्थ पर आधारित मूल्यों को समाप्त करना होगा और उन्हें मनुष्यता पर आधारित बनाना होगा। तभी समता का व्यक्ति की साधना में तथा समाज के नवनिर्माण में व्यापक रूप से सच्चा विकास सम्पादित किया जा सकेगा। मैं इस दृष्टि से साध्य और साधन का समीकरण करते हुए जीवन की सूत्र रूप एवं सारपूर्ण इस व्याख्या को कि- . सम्यक् निर्णायकं समतामयञ्च यत् तज्जीवनम् को विशेष महत्त्व देना चाहूंगा कि यह नई व्याख्या जीवन के मानवीय मूल्यों को प्राथमिकता देती है। समता जिस जीवन का साध्य होगी, उसका सच्चा साधन सम्यक् निर्णय ही हो सकेगा जो एक समता साधक के ज्ञान, विवेक एवं ध्यान की कसौटी रूप होगा। सम्यक निर्णय का सम्बन्ध भी सदा भावनात्मक ही होगा तथा विकसित भावना के अनुसार ही उस निर्णय की श्रेष्ठता एवं प्रभावकता सिद्ध होगी। इस प्रकार जीवन की पूर्णता इस छोटी-सी व्याख्या के दो शब्द समूहों में समाविष्ट कर ली गई है। ये दो शब्द समूह आत्मविकास की महायात्रा के पथ पर प्रकाशित होने वाले एक प्रकार से दो दीप-स्तंभ हैं। पहला सूत्र और मेरा संकल्प आत्म समीक्षण के इस पहले सूत्र के अनुसार मैं संकल्प करता हूँ कि मैं मूर्छा और ममत्व को हटाऊंगा, राग-द्वेष और प्रमाद को मिटाऊँगा तथा अपने जीवन को सम्यक् निर्णायक, समतामय व मंगलमय बनाऊंगा। मेरा यह संकल्प मेरे लिये भी है और मेरे साथियों व अन्य प्राणियों के लिये भी है जिनको भी मैं आत्म-स्वरूप घातक दुर्गुणों से सावधानी दिलाना चाहता हूँ तथा जीवन के नवनिर्माण एवं समाज के स्वस्थ विकास के प्रति अपने कर्तव्य का भी निर्वाह करना चाहता हूँ। ___मेरा संकल्प है कि मैं अपनी स्वयं की तथा अधिकाधिक मनुष्यों की संवेदनशीलता को गहरी करूंगा जिससे हम सब मिलकर ऐसे समाज का निर्माण कर सकें जिसमें शोषण, दमन, अनुशासनहीनता, पारस्परिक कटुता अथवा हृदयहीनता व अशान्ति की भावना न हो। मैं अपनी चेतना को जगाऊंगा तो अन्य प्राणियों को भी उनकी चेतना जागृति में योग दूंगा कि जीवन को दुःखी बनाने वाले मूर्छा, प्रमाद और ममत्व घटे तथा वस्तु त्याग से पहले ममत्व त्याग की मानसिकता बने। हमारे बीच आध्यात्मिक जागृति का इस रूप में विकास हो कि हम मान-अपमान, या लाभ-हानि आदि के द्वन्द्वों की निरर्थकता को हृदयंगम कर लें। इससे अहिंसा, सत्य तथा समता को अपनाने की अभिलाषा एवं उमंग बलवती हो जायेगी। हमारे विचार एवं व्यवहार में जितने अधिक अंशों में अहिंसा, सत्य तथा समता का समावेश होगा, उतनी ही अधिक गति से अनासक्ति की मूल्यात्मक भावना का प्रसार हो सकेगा। यही मार्ग है कि व्यक्ति के अन्तःकरण में तथा समाज की अन्तरंगता में नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की चेतना सघन बन जाय। (सामान्यतया मैं जानता हूँ कि यह मूर्छित मनुष्यों का जगत् है फिर भी आध्यात्मिक उत्थान की प्रेरणा का स्रोत यदि निरन्तर बहता रहे तो मनुष्य कितना ही मूर्छित क्यों न हो, उसमें ८३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy