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________________ इन्द्रियों की ज्ञान शक्ति कम नहीं होती है, तब तक अनेक भेद वाली अक्षीण ज्ञान शक्तियों द्वारा तू उचित प्रकार से आत्महित को सिद्ध कर ले। 'समतादर्शी के लिये कोई उपदेश शेष नहीं है। आसक्तियुक्त विषमतादर्शी अज्ञानी लोगों के अनुमोदन से अपरिमित रूप से दुःखी होता है, अतः हे धीर, तू मनुष्यों के प्रति आशा को और वस्तुओं के प्रति इच्छा को छोड़। यदि लाभ है तो मद न कर, हानि है तो शोक मत कर और बहुत भी प्राप्त करके आसक्तियुक्त मत बन । अपने को परिग्रह से दूर रख। 'इच्छाएँ अनंत होती हैं और जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता है। फिर इच्छाओं के तृप्त न होने पर मनुष्य शोक सन्तप्त होता है, क्रोध करता है तथा दूसरों को सताता है। जो आसक्त है, वह कपटी है, अज्ञानी है, विषय-लोलुप है और सबके प्रति शत्रुता बढ़ाने वाला होता है। जो ममतावाली वस्तु बुद्धि को छोड़ता है और समतामयी आत्मा के दर्शन करता है, वह सब ओर से पूर्ण जागरूकता पूर्वक चलने वाला होता है। 'पीड़ित प्राणियों को देखकर तू अप्रमादी होकर गमन कर । यहाँ प्राणी पीड़ा में चीखते हुए दिखाई देते हैं। हे बुद्धिमान्, उनको तू देख । यह पीड़ा हिंसा से उत्पन्न होने वाली है। और हिंसा से विषमता उत्पन्न होती है अतः हे धीर, तू विषमता के प्रतिफल और आधार का निर्णय कर एवं उसका छेदन करके समता का दृष्टा बन । 'हे ज्ञानी, संसार को निस्सार देखकर तू समझ। हे अहिंसक, दुःखों से परिपूर्ण जन्म-मरण चक्र को जानकर समता का आचरण कर।' जीवन की एक नई व्याख्या मैं गहराई से चिन्तन करता हूँ तो एक प्रश्न उठता है कि यह जीवन क्या है ? –किं जीवनम् ? जहाँ तक जीवन की व्याख्या का सम्बन्ध है, जितने मुंह, उतनी व्याख्याएँ सुनने को मिल सकती हैं। किन्तु क्या कोई व्याख्या ऐसी है जो सूत्र रूप भी हो तथा सर्वार्थ सूचक भी हो। मेरे मन में आता है कि जीवन की पूर्णता किसमें मानी जानी चाहिये? जीवन की पूर्णता वही है जो वीतराग देव प्राप्त कर चुके तथा सम्पूर्ण संसार को बता चुके । वह पूर्णता प्रकट होती है समता की पूर्णता में। जब विषय-कषाय एवं राग-द्वेष प्रमाद रूपी ममता जीवन के विचार एवं व्यवहार में से समाप्त होने लगती है और उसके स्थान पर समता का प्रवेश होने लगता है, तभी यह समझा जा सकता है कि उस जीवन ने सही दिशा पकड़ ली है। इस रूप में जब ममता सम्पूर्णतः समाप्त हो जाय एवं समता सम्पूर्णतः विस्तार पा जाय तब कह सकते हैं कि समता की पूर्णता में जीवन की पूर्णता प्रकट हुई है। इस दृष्टि से जीवन की जो भी नई व्याख्या मैं बनाऊं, उसमें समता-भाव का तो प्रमुख स्थान होगा ही। फिर यह सोचा जाय कि समता के उच्चस्थ शिखर पर पहुँचने के लिये कौनसे एक बिन्दु को खोजा जाय, जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो। वैसे तो समता की साधना करने तथा उस साधना को सफल बनाने की दृष्टि से कई महत्त्व के बिन्दु हो सकते हैं जैसे समता के सिद्धान्त को समझना, उसके कार्यान्वयन के विषय में सही निर्णय लेना और इसकी सामाजिक एवं व्यक्तिगत क्षेत्र में उपयोगिता का निर्धारण करना। ८१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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