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________________ प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, परन्तु परलोक में भी यह प्रमाद दुर्गति में ले जाने वाला । मद्यपान के तो अनगिन दोष होते हैं—– स्वस्थ एवं सुन्दर शरीर का नाश, भांति-भांति के रोगों का आगमन, ज्ञान, स्मृति एवं बुद्धि का नाश, लोगों द्वारा तिरस्कार की प्राप्ति, सज्जनों से अलगाव, द्वेष की प्रगाढ़ता, वाणी में कठोरता, नीच संगति, कुल-हीनता, शक्ति का ह्रास, धर्म, काम एवं अर्थ की हानि आदि । (२) विषय प्रमाद—पांच इन्द्रियों के विषय, शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श पैदा होने वाला प्रमाद । इन पांचों विषयों में आसक्ति से विषाद उत्पन्न होता है । ये विषय भोग भोगते समय मधुर लगते हैं लेकिन परिणाम में बहुत ही कटु होते हैं । विष-सम होने के कारण ही इन्हें विषय का नाम दिया गया है। इस विषय-प्रमाद से मनुष्य व्याकुल चित्त वाला होकर जीव के हिताहित के विवेक से शून्य हो जाता है । वह अपनी झोली दुष्कृत्यों से भर लेता है और चिरकाल तक संसार के दुःखों की अटवी में भटकता रहता है। शब्द में आसक्त हिरण व्याध का शिकार बनता है। रूप मोहित पतंगा दीपक की लौ पर जल मरता है। गंध में गृह भंवरा सूर्यास्त के समय कमल में ही बंद होकर नष्ट हो जाता है। रस में अनुरक्त हुई मछली कांटे में फंसकर मृत्यु का शिकार हो जाती है। स्पर्श सुख में आसक्त हाथी स्वतन्त्रता सुख से वंचित होकर बंधन को प्राप्त होता है। एक-एक विषय के वशीभूत होकर जीव जब इस रीति से विनष्ट हो जाते हैं तो उन मनुष्यों का क्या कहना, जो पांचों प्रकार के विषयों में प्रमत्त होकर बेभान बने रहते हैं ? विषयासक्त जीव निरन्तर विषयों का उपभोग करते हुए भी कभी तृप्त नहीं होता, बल्कि अग्नि में घी डालने के समान उसकी अतृप्ति बढ़ती ही चली जाती है। उसे आज का 'सुख तो दिखाई देता है, किन्तु वह भूल जाता है कि भावी जीवनों में नरक एवं तिर्यंच गति के महादुःखों को भोगते समय उसकी कैसी दुर्दशा बनेगी। अतः विषय प्रमाद से निवृत्ति ही श्रेयकारी है । (३) कषाय प्रमाद — क्रोध, मान, माया, लोभ, रूप कषाय का सेवन करना कषाय-प्रमाद कहलाता है। शुभ परिणामों का नाश करने वाला क्रोध पहले स्वयं क्रोधी को जलाता है और बाद में दूसरों को । क्रोधी विवेक और सदाचार खो देता है तथा सदा अकार्यों में प्रवृत्ति करता है। क्रोध वह अग्नि है जो चिरकाल से अभ्यस्त यम, नियम, तप आदि को भी क्षण भर में भस्म कर देती है । क्रोध को जो क्षमा से शान्त नहीं करता, वह लोक-परलोक बिगाड़ने वाला एवं स्व-पर का अपकार करने वाला बनता है । इसी प्रकार मान भी विवेक, विनय और ज्ञान का नाश कर देता है एवं मनुष्य को कुशील एवं कदाचार में गिरा देता है । कारण, कुल, जाति, बल, रूप, तप, विद्या, लाभ व ऐश्वर्य का भी मान करना नीच गौत्र के बंध का कारण होता है। मान के बल पर मनुष्य ऊँचा बनना चाहता है किन्तु यहीं वह भूल जाता है कि मान नीचा बनाने वाली वृत्ति होती है। मान का परिहार विनय वृत्ति से ही किया जा सकता है । माया रूप कषाय भी ऐसा शल्य है जो आत्मा को व्रतधारी नहीं बनने देता। अविद्या की जननी और अपकीर्ति की प्रसारिणी यह माया इस लोक में अपयश तथा परलोक में दुर्गति देती है । मायापूर्वक यदि संयम और तप के अनुष्ठान भी किये जांय तो वे भी नकली सिक्कों की तरह व्यर्थ ही होंगे। माया का त्याग करके सर्वत्र सरलता अपनाई जानी चाहिये। सबसे ऊपर लोभ रूप कषाय सभी प्रकार के पापों का आश्रयस्थल होता है। लोभी मायावी भी होता है तो मानी और क्रोधी भी । । लोभी मृत्यु के खतरे से तो सदा भयभीत रहता ही है किन्तु वह अपने ही आत्मीय जनों से भी भयभीत रहता है कि कहीं वे उसकी हत्या न कर दें । लोभी परम हिंसक भी होता है। लोभ का निराकरण सन्तोष वृत्ति को धारण करके ही किया जा सकता है। निद्रा दो प्रकार की होती है, एक द्रव्य निद्रा और दूसरी भाव निद्रा ! द्रव्य निद्रा में सोया हुआ व्यक्ति चेतना के स्थूल क्रिया-कलापों से मुक्त सा हो जाता है तथा भाव निद्रा अज्ञान और ७६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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