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________________ अतृप्तियों से भयंकर एवं असह्य कुंठाएं जन्म ले लेती हैं जिनके कारण समझने बूझने के उपरान्त भी मनुष्य का ज्ञान और विवेक सामान्यतया पुनः जागृत नहीं हो पाता। मुझे याद है कि ऐसी ही अज्ञान एवं अविवेक की मनःस्थिति में विभ्रमित करने वाले कैसे-कैसे परिग्रह के प्रलोभनों को मैंने झेला है तथा इच्छाओं के दबाव को बर्दाश्त किया है। फिर भी हाथ और कछ तो नहीं लगा हाथ लगी मात्र कंठाएँ, जिन्होंने मेरे व्यक्तित्व को इस तरह मथ कर रख दिया कि दीर्घकाल तक मैं कोई सदाशयी विचार ग्रहण कर सकने तक में समर्थ नहीं रहा। धीरे-धीरे कुंठाओं का जोर जब कम होने लगा तो मैंने अतीत की ग्लानि के साथ भविष्य पर चिन्तन आरंभ किया। मिथ्या विचारों का मैंने त्याग किया। व्रतों की गहराई में जब मैं आगे बढ़ा तो मैंने अपनी इच्छाओं को बांधने का प्रयास किया क्योंकि अनियंत्रित इच्छाओं से उपजी कुंठाओं की यंत्रणा को मैं भोग चुका था। वीतराग देव द्वारा उपदेशित व्रत ने ही मेरी चेतना की रक्षा की और वह व्रत था इच्छा परिमाण व्रत अर्थात् खान-पान, वस्त्र, वाहन, आदि की छोटी से छोटी इच्छा को भी सीमा के बंधन में बांध लो। जो सीमा सोच कर निर्धारित कर ली है -वस्तुओं की कितनी ही विपुलता हो जाय तब भी उस सीमा का उल्लंघन मत करो—यह है इच्छा परिमाण व्रत। परिग्रह परिमाण याने कि क्षेत्र, वस्तु, धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण, द्विपद, चतुष्पद, कांसा, पीतल, तांबा आदि धातु और घर की समस्त सामग्री तथा खान-पान, उबटन, स्नान, वस्त्र, वाहन आदि सभी की एक मर्यादा ग्रहण कर लेना इस व्रत का उद्देश्य है। एक शब्द में कहें तो मनुष्य की मूर्छा और तृष्णा को घटाने और सन्तोष को ग्रहण करने तथा आवश्यक पदार्थों व परिग्रह का सारे समाज में . विकेन्द्रीकरण होते रहने में इस व्रत की अपार उपयोगिता है। मैंने देखा है कि इच्छाओं के अनियंत्रित रहने की अवस्था में अतृप्ति की कुंठाएँ बहुत तीखी होती हैं। इन्हीं कुंठाओं से तृष्णा बढ़ती जाती है और मोह गाढ़ा होता जाता है। तृष्णा से मोह तथा मोह से तृष्णा का ऐसा चक्र चल पड़ता है जिसकी मार से दीर्घकाल तक आहत होना पड़ता है तथा जन्म-जन्मान्तर का दुःख भोगना पड़ता है। कहा गया है कि जिसके मोह नहीं रहता, उसके दुःख नष्ट हो जाते हैं और जिसके तृष्णा नहीं रहती, उसका मोह नष्ट हो जाता है। कुंठाजन्य तृष्णा की ऐसी दशा होती है कि धन, धान्य, स्वर्ण, रजत आदि समस्त पदार्थों से परिपूर्ण यह समग्र विश्व भी यदि एक मनुष्य के अधिकार में दे दिया जाय तब भी वह तृप्त और सन्तुष्ट नहीं होगा, यह एक शाश्वत सत्य है। कारण, ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है। लाभ ही लोभ वृद्धि का कारण होता है। कथा है कि दो मासे सोने से होने वाला कपिल का कार्य लोभवश करोड़ों से भी पूरा नहीं हो सका। यदि सारा संसार और सम्पूर्ण सम्पत्ति व सत्ता भी मेरी हो जाय, तब भी वह मेरे लिये अपर्याप्त ही रहेगी क्योंकि मेरी तृष्णा का अन्त नहीं होता। दूसरे, इतनी सम्पत्ति और सत्ता भी अन्ततः मेरी रक्षा करने में अयोग्य ही सिद्ध होगी। जब तक मेरे मन में तृष्णा और लोभ समाया हुआ रहेगा तब तक कैलाश पर्वत के समान सोने-चांदी के असंख्यात पर्वत भी मेरे मन को तृप्त नहीं कर सकेंगे। ___ सांसारिक पदार्थों में तृप्ति की जब ऐसी दशा है तो समझ में नहीं आता कि यह सब समझ कर भी अनेकानेक कुंठाओं की पीड़ा हम क्यों भुगतते हैं और अपने लिये दीर्घकालिक दुःखों की रचना क्यों करते हैं ? यह वास्तव में दयनीय और चिन्तनीय दशा है हमारे मन की, हमारी चेतना की तथा हमारे ज्ञान और विवेक की। ७७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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