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________________ .( ४७१ ) एवं तु समस्या एगे, मिच्छदिडी अथारिया । विस एसणं मिझायंति, कंका वा कलुमाहमा ॥१८॥ (सूत्रकृताङ्ग एकादश भ०) . अर्थ-भाग, सजीवधान्य, कसा पानी का उपयोग कर अपने लिये बनाया हुआ अन्न खाकर जो ध्यान करते हैं उन्हें पर पीस के अनभिज्ञ असमाधि प्राप्तकहना चाहिए। जैसे ढंक, केक, कुरर, मद्य, भादि पक्षी मत्स्य की खोज में स्थिरचित्त होकर ध्यान करते हैं-यह ध्यान मलिन और अधर्म्य है . इसी प्रकार अमुक श्रमण जो मिथ्यादृष्टि और अनार्य है, वे कक पक्षो से भी अधम इन्द्रियों की विषयैषणा का ध्यान करते हैं । निर्घन्ध श्रमण उदिष्टकृत आहार और श्रामगन्ध दोनों को समान मानते थे। उनका कहना था कि श्रमण के निमित्त अन्य जन्तुओं का समारम्भ करके बनाया गया भोजम भी एक प्रकार का श्रामगन्ध ही है। भगवान महावीर ने उन्हें साकीद दे रक्खी थी कि आमगन्धं परिभाष निरामगन्धो परिष्ये । अर्थ-भामगन्ध को समझ कर निग्रंथ श्रमण निरामगन्ध होकर विचरे। सम्वेसि जीवाण दवायावे सावज दोसं परिवजयंता । तस्वकियो इसिबो नावयुसा, उदित भरी परिवज्जयंति ॥
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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