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________________ (४७० ) यो प्राथमतिपातेति, मुसाबादं च भासति । लोके अदिन आदीयंति परदारं च गक्छति ॥१२॥ सुरामेश्यपानं च यो नरो, अनुयुजति । इधेऽव मेसो लोकेस्मि, मूलं खणति अत्तनो ॥१३॥ (धम्मपद पृ० ३८) अर्थ-जो प्राणियों को प्राणमुक्त करता है, झूठ बोलता है, लोकों में प्रदत्त (परचीज ) उठाता है, पर स्त्री गमन करता है, और जो पुरुष मदिरा मैरेय नामक मादक पदार्थ पीता है, वह इसी लोक में अपनी जड़ को खोदता है। न तेन परियोहोति येन पाणानि हिंसति । अहिंसा सबपाणानं, परियोति पचति ।। (धम्मपद पृ०४१) अर्थ-जिस कार्य के करने से पर प्राणों की हिंसा होती है, इस कार्य के करने से कोई आर्य नहीं बनता, सर्व प्राणों का अहि. सक ही आर्य नाम से पुकारा जाता है। निधाय दण्डं भृतेसु, तसेसु धावरेसु च । यो न हन्ति न पातेति, तमहं अमि प्रामणम् ॥ (सुत्त निपात पृ०५८) ब-स और स्थावर को मारने की मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों को छोड कर म स्वयं प्राणिपात करता है न दूसरों से करवाता है मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ।
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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