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________________ (४२६ ) .. हे सारिपुत्त ! कभी कभी मैं दत्तियों का अभिग्रह करता । एक पत्ति का अभिग्रह होता, उस दिन गृहस्थ अपने हाथ से एक बार जो कुछ देता उससे निर्वाह करता, दो दत्ति के नियम के दिन दो बार, तीन दत्ति के नियम के दिन तीन बार, यावद् सात दत्ति के नियम के दिन सात बार हाथ में लेकर जो देता उतना भोजन करता। हे सारिपुत्त ! कभी मैं एक उपवास कर भोजन लेता, कभी दो उपवास कर भोजन लेता, कभी तीन उपवास कर भोजन लेता, इस प्रकार पाँच, छः, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह और पन्द्रह उपवास तक कर के पारणा करता । इस प्रकार एक एक वृद्धि से आधे महीने तक उपवासी रहकर विचरता । ___ उपयुक्त तप सम्बन्धी बुद्ध ने सारिपुत्त को जो वर्णन सुनाया है, वह अक्षरशः निर्ग्रन्थ श्रमणों का तप है । “अन्त कृद् दशाङ्ग" "अनुत्तरोपपातिक दशा" आदि जैन सूत्रों में श्रमण श्रमणियों के विविध तपों में वर्णन किया गया है । जिन्होंने उक्त सूत्रों को पढ़ा है उन्हें कहने की आवश्यकता नहीं कि बुद्ध ने प्रारम्भ में जो तप किये थे वह निर्ग्रन्थ निम्रन्थियों के तपों का अनुकरण था । का अभिग्रह किया और उसमें आहार न मिला तो उपवास करते, दो घर का अभिग्रह होता तो एक घर आहार मिलता दूसरे घर नहीं तो उस दिन एक ही कवल से चलाते इसी प्रकार जितने घर जाने. का नियम होता उतने घरों में जाते और प्रत्येक घर से एक एक कवल प्रमाण आहार जिस दिन नियमानुसार जितना मिलता उस दिन उसी से चलाते।
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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