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________________ ( ३६६ ) भत्रि कहते हैंया तु पर्युषिता भिक्षा, नैवेद्यादिषु कल्पिता । तामभोज्यां विजानीयात्, दाता च नरकं व्रजेत् ।। अर्थ-नैवेद्य आदि के रूप में परिकल्पित वासी अन्न की भिक्षा ) भिक्षु के लिये अभोज्य समझना चाहिए, तथा उस भिक्षा को देने वाला नरक गामी बनता है। यम कहते हैंयदि पर्युषितं भक्ष्यमद्याद् भिक्षुः कथश्चन । तदा चान्द्रायणं कुर्यात् यतिः शुद्धयर्थमात्मनः॥ अर्थ-यदि किसी भी कारण से भिन्नु पर्युषित भक्ष्यान्न खाले तो उसकी पाप शुद्धि के लिये चान्द्रायण व्रत करे । वसिष्ठ स्मृति में कहा गया हैअलाभे न विषादी स्यात् लामे चैव न हर्षयेत् । प्राणयात्रिकमात्रः स्यान्मात्रासंगाद् विनिगतः॥ अर्थ- त्यागी संन्यासी भिक्षा की प्राप्ति में खेद और प्राप्ति में हर्ष न करे, प्राणयात्रा के प्रमाण में भिक्षा की मात्रा ग्रहण करे । आपस्तम्ब कहते हैंश्राद्ध-भोजी यतिनित्यमाशु गच्छति शूद्रताम् । तादृशं कल्मषं दृष्ट्वा, सचलो जलमाविशेत् ।। ' अर्थ-श्रीद्धाम खाने वाला संयासी जल्दी शूद्रपन को प्राप्त होता है, वैसा पाप कार्य देखकर उसे सचल स्नान करना चाहिए ।
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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