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________________ ( ३७४ ) नृत्यं गानं समा सेवां; परिवादांश्च वर्जयेत् । वानप्रस्थ गृहस्थाभ्यां, प्रीतिं यत्नेन वर्जयेत् ॥६॥ एकाकी विचरेनित्यं, त्यक्त्वा सर्व-परिग्रहम् । याचिताऽयाचिताभ्यां तु,भिक्षया कल्पयेत् स्थितिम् ॥१० साधुकारं याचितं स्यात्, प्राक्-प्रणीत-मयाचितम् । अर्थः-गृहस्थाश्रम से निकल कर प्रवजित होने वाला ब्राह्मण प्राचार्य का बताया हुआ वेष यत्न से धारण करे, तथा शौच, आश्रय सम्बन्ध और यति धर्मों को सीखे, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहता और सर्वभूतदया, संन्यासी इन यतिधर्मों का सदा पालन करे। ... संन्यासी प्रामके परिसर में वृक्ष के नीचे अपना आसन लगाये और कीट पतङ्ग की तरह अनियत भूमिभागों में सदा भ्रमण करता रहे, केवल वर्षा ऋतुओं में एक स्थान में निवास करे। ___ वृद्धों, बीमारों, भीरु व्यक्तियों का सङ्ग न करता हुआ प्राम में वास करे तो दूषित नहीं है। गुह्य भाग ढांकने का वस्त्र, शीत से रक्षा करने वाली गुदड़ी और पादुका इनका संग्रह करे अन्य उपकरणों का नहीं। स्त्रियों के साथ, सम्भाषण, उनका विश्वास, दर्शन, नृत्य, और गान देखने सुनने का त्याग करे। किसी सभा में न जाय,
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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