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________________ ( ३६७ ) “अथ पुनती वाऽव्रती वा स्नातको वाऽस्नातको वा उत्सनामिको वा निरनिको पा यदहरेव विरजेत् तदहरेष प्रव्रजेत् ।” अर्थः-यदि वह व्रती हो अथवा अवती, स्नातक हो अथवा अग्नातक, आहितामिक हो अथवा अनाहितामिक, जिस दिन वैराग्यवान हो उसी दिन प्रबजित हो जावे। . संन्यास ग्रहण के सम्बन्ध में प्रारण्योपनिषद् में निम्न प्रकार का नियम है। "वेदार्थ यो विद्वान् सोपानयादूर्ध्व स तानि प्राग्वा त्यजेत् पितरं पुत्रमन्युपवीतं कर्म कात्रं चान्यदपि" अर्थात् घेद के अर्थ को जो जानता है वह उनको उपनयन के बाद अथवा पहले ही पिता को पुत्र को अग्नि को, उपवीत को कर्म को, स्त्री को, और अन्य भी उससे जो सम्बन्ध हो उन सभी को त्याग दे। संन्यास के विषय में अङ्गरा का प्रतिपादन नीचे अनुसार है। यदा मनसि संजातं, वैतृष्ण्यं सर्ववस्तुषु । तदा संन्यासमिच्छन्ति, पतितः स्यात् विपर्ययाद ॥ अर्थः-जिस समय सर्व वस्तुओं में से मन तृष्णाहीन हो बाय तभी संन्यास लेना चाहिये; ऐसी बानियों की मान्यता है,
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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