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________________ ( ३६१ ) केश - रोम-नख-श्मन छिन्द्यान्नापि कत्त येत् । त्यजञ्छरीर-सौहार्द, वनवासरतः शुचिः ॥ १० ॥ अर्थ-गृहस्थ अथवा ब्रह्मचारी जब बनबास का आश्रय ले तब तब वह वस्त्रधारी अथवा वल्कलधारी बन कर वन में बगैर बोये बन्य धान्यों का भोजन करने वाला मुनि बने । वह मानव वस्ती से दूर निर्जनस्थान में अपना आश्रम बनाये और वहां रहता हुआ भी पच महा यज्ञों को न छोड़े, और नीवार ( वन्य त्रीहि आदि ) वन्यधान्यों से अग्निहोत्र करे । ब्रह्मचारी वानप्रस्थ, श्रवण से अभि को स्थापित करके पचमहा यज्ञ की विधि से यज्ञ करे । वन में वास करने वाला वर्षा ऋतु में खुले आकाश में सोये, शीत सहन करे और प्रीष्म ऋतु में पचाभि के पास बीच बैठ कर धूप सहन करे । केश, रोम, नख और मूंछ न उखाड़े न काटे । बनबास में रहने वाला शरीर का मोह छोड़ता हुआ पवित्र रहे । उक्त तीनों आश्रमों की पहचान बताते हुए दक्ष स्मृतिकार कहते हैं : मेखलाजिनदण्डैश्च ब्रह्मचारीति लक्ष्यते । गृहस्थो दानवेदाद्यः, नखलामैर्वनाश्रमी ॥ अर्थ — मेखला, मृगचर्म, तथा दण्ड से ब्रह्मचारी पहचाना जाता है, दान और वेदाध्ययन से गृहस्थाश्रमी की पहिचान होती
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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