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________________ ( २८६ ) वितहं ववहर माणं, सत्येण वियाणतो निहो डेइ । ' अम्हं सपक्ख दण्डो, न चेरिसो दिक्खिए दंडो ॥३६०॥ सल्ल द्धरणे समणस्सं, चाउकण्णा रहस्सिया परिसा । अज्जाणं चउकरणा छकरणा अकराणा वा ॥३६१॥ अर्थः-पहली परिषद् का नाम “सूत्रकृत पूरान्तिका" है । इस परिषद् में आवश्यक सूत्र से लेकर द्वितीयाङ्ग सूत्र कृतान्त तक पढ़े हुए साधु बैठते और अपना अपना पाठ्य सूत्र पढ़ते, तथा उस पर चर्चा समालोचना करते। इस परिषद् में उक्त योग्यता वाला कोई भी श्रमण पढ़ सकता था। द्वितीय परिषद् का नाम “छत्रान्तिका है। इस परिषद् में दशाश्रुत स्कन्ध तथा उसके ऊपर के सूत्रों के अभ्यासी श्रमण बैठते तथा शास्त्र विषयक ऊहापोह करते, परन्तु इस परिषद् में अपरिणामी तथा अतिपरिणामी श्रमण नहीं बैठ सकते थे, भले ही चे उक्त योग्यता वाले क्यों न हो, इसमें उन्हें बैठने का अधिकार नहीं गिलता था। ॥३८४॥ ___ तीसरी परिषद् "बुद्धिमती" थी । इस परिषद में बैठने वाले श्रमण लौकिक । वैदिक श्रीर सामाजिक शास्त्रों में प्रवीण होते और जैन जैनेतर धार्मिक तथा दार्शनिक शास्त्रों में कुशल होते थे। इस कारण यह परिषद् स्वसमय विशारदा होने से बुद्धिमती कहलाती थी। ॥३ ॥
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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