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________________ ( २६३ ) अर्थ - वर्षावास की स्थिरता किये हुए निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थि - नियां जिनके मन प्रसन्न हैं, शरीर तन्दुरुस्त तथा वलिष्ठ हैं, उनको ये नवरस विकृतियां बार बार खाना नहीं कल्पता । जैसे—दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड, मधु, मद्य, मांस । साधु अपने आज्ञाकारक के आज्ञा के विना विकृति - भोजन नहीं कर सकता | वासावासं पज्जोस विये भिक्खू इच्छिज्जा अरण्यरिं विगई हारित नो से कप्पड़ से अरणा पुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा थेरं पविति गरिंग गणहरं गरगावच्छेययं वांगं वा जंपुर कट्ट, विहरइ कप्पइ से पुच्छित्ता आयरिथं वा उवज्झायं वाथेरं पविति गरिंग गणहरु गणावच्छेयं वा जंवा पुरओ काउं बिहारs आहारित्तए इच्छामिणं भंते । तुभेहिं अन्भरगुरणाए समाणे अन्नयरिं विगई आहारित तं एव इय वा एव इक्खुत्तो तेय से वियरिज्जा एवं से कप्पइ अायरिं विगई आहारितए तेय से ना वियरिज्जा एवं सेनो कप्पइ अरणयरिं विगई आहारित से किमाहु भंते! आयरिया पच्चवायं जाणंति | (कल्प सूत्र पृ० ७८) अर्थ — वर्षावास स्थित भिक्षु किसी विकृति विशेष को भोजना के साथ लेना चाहे तो वह आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्त्तक गणी, गणधर, गणावच्छेदक, अथवा जिसको वह अपना नायक बना कर विचरता है, उसको पूछे बिना विकृति नहीं खा सकत, पहले वह अपने नेता की इस प्रकार आज्ञा ले-हे भगवान् ।
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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