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________________ ( २५७ ) अरसं विरसं वावि, सूइयं वा असूइयं । उल्लं वा जइ वा सुक्क, मंथु कुम्मास भोगणं ॥८॥ उप्पणसं नाइ हि लिज्जा, अम्पं वा बहु फ्रानुवं । मुहा लद्धं मुहाजीवी, सुजिज्जा, दोस कजिनं ॥८६॥ अर्थः-अपने स्थान पर जिसके भोजन करते हुए श्रमण के . उस भिक्षा भोजन में से अस्थि ( फल की गुठली ) काँटा, तिनके का छिलका, शर्करा ( रती) अथवा इसी प्रकार का अन्य कोई कूड़ा कर्कट निकले ता उस पानी से धोकर एकान्त में रख दें और . स्वाद हीन, अथवा अनिष्ट स्वादवाला| शुचि ( ताजा ) अशुचि ( बासी ) गीला अथवा सुखा मन्थु ( वैर का चूरण-सत्तू ) कुलमाष भोजन ( उर्द आदि का भोजन ) मिलने पर उसकी निन्दा न करे, चाहे वह प्रमाण में थोड़ा ही हो, परन्तु जो प्रासुक और अनायास मिला है, उस मुधालब्ध आहार को मुधाजीवी ( किसी का भार रूप न बनकर अपना जीवन निर्वाह करने वाला) साधु अपने भोजन के काम में लें । . भिक्षा में प्राह्य द्रव्य जैन श्रमण गृहस्थों के यहाँ स्वाभाविक रूप से बने हुए सादे निरामिष खाद्य पदार्थों को अपने योग्य होने पर गृह स्वामी अथवा गृहस्वामिनी के हाथ से ले लेते हैं । इस स्वाभाविक मिशान में भी जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ट ऐसे तीन विभाग किये जाते थे । जघन्य मितान में रूखे सूखे द्रव्य होते थे, जो
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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