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________________ ( २४४ ) ज्ञानादि चारों के आराधन में पराक्रम करने और संवर समाधि विशेष लीन रहने से साधुओं की चर्या गुण और नियम देखने योग्य बनते हैं । ३-४॥ अनियत स्थान में वास, सामुदायिक भिक्षाचर्या, शिलोच्छवृत्ति श्रतिरिक्तता, (निर्जनता ), अल्पोपधि ( जरूरत के अतिरिक्त धार्मिक उपकरणों को भी न रखना) कलह का त्याग, इस प्रकार की श्रमणों की बिहारचर्या प्रशंसनीय होती है ॥ ५ ॥ जो स्थान जनसंमर्दादि से आकीर्ण हो, तथा जहां जाने से श्रमण की लघुता हो, उन स्थानों को वर्जित करना चाहिए। प्रायः दृष्ट स्थान से लाये हुए भात पानी को संसृष्टकल्प से अर्थात पहले ही से भोजन पानी से खरष्टित वर्त्तन से तथा उसी पदार्थ से खरटितदायक के हाथ से लेने का साधु यत्न करे || ६ || साधु को अमद्यपायी अमांसाशी, और अमत्सरी होना चाहिए, बार बार विकृति त्यागी, कायोत्सर्गकारी, और स्वाध्याय ध्यान में प्रयखवान् होना चाहिए ॥७॥ साधु मासकल्पादि की समाप्ति में विहार करते समय शयन, आसन, शय्या, निषद्या और भक्त पान को अपने लिये रख छोडने की गृहस्थ को प्रतिज्ञा न कराये और न ग्राम, कुल, नगर तथा देश पर अपना ममत्व रक्खे ||८|| गृहस्थ के कामों में सहायक न बने, न गृहस्थ का अभिवादन बन्दन और पूजन करे, साधु को अक्लिष्ट परिणामी अर्था
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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