SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २४१ ) टीका तथा आत्मानं जनेभ्यः पिण्डपातित्वेन भावयति ततो भिक्षा परिभ्रमणेन जीवति अथावमौदर्यदोषतः परिपूर्णो न भवति, ततो दानशालायां भिक्षुकादिभिः सह पंक्त्यां समुपविशति, ततः परिपाट्या परिवेषणे जाते सति-"अपत्ते इति” अत्र प्राकृतत्वाद् यकार लोपः । अयं पात्रे तद् गृहीत्वा अन्यत्र विविक्त प्रदेशे समुदिशति । अथान्यत्र गत्वा समुद्दे शकरणे तेषां काचित् शङ्का सम्भाव्यतं । ततो भिक्षुकादिभिः एव सह पंक्त्योपविष्टः सन् समुहिशति । तत्र यदि सचित्त कन्दादिपुद्गलं वा मांसापरपर्यायं परिबेषकः परिवेषयति । तदा ममेदमकारकं वैद्यन प्रतिषिद्धमिति वदता तेषां कन्दादीनां पुद्गलस्य प्रतिषेधः कर्तव्यः ।। : प० १२१ अह पुण रूसेज्जा ही तो घेत्तुं विगिंचए जहा विहिणा। एवं तु तहिं जयणं कुज्जा ही कारणागाढे ॥ सेबउ मा व वयाणं, अइयारं तहवि देंति से मूलम् । ... विगडा सव जल-मज्जेउ, कहं तु नावा न वोडेज्जा ।। अर्थ-महाव्रतों में दोष लगाये या न लगाये, परन्तु उक्त रीति से बौद्ध भिक्षुओं के साथ उनका वेष धारण कर उनके साथ फिरने घाले जैन भिक्षु को जब वह वापस अपने गुरु के पास आये तब मूल से नई उपस्थापना प्रदान करके समुदाय में लेना, चाहिये क्योंकि प्रकट छिड़वाली नौका बैठने वालों को जल में डुबा, देवी है। इसी तरह श्रमण धर्म के विपरीत आचरण करने वाले जैन श्रमण को कड़ा दण्ड दिये बिना मर्यादा नष्ट हो जाती है।.....
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy