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________________ (. २१५ ) सोपमादमनुचिनो, आपज्ज न तथा गतं । अवीचि निरयं पत्तो, चतुद्वारं भयानकम् ।। इति वुत्तक पृ० ७२-७३) ' अर्थ-देवदत्त विघ्न रूप, नरक गामी, नादान, अप्रतिकार्य इन तीन कारणों से, हे भिक्षुओं पाप मित्र से पराभूत, तथा परवश चित्त वाला होकर देवदत्त विघ्न रूप, नरकगामी, नादान, अप्रतिकार्य ( बना)। उत्तर करणीय (सामान्य साधन) विद्यमान होने पर भी अपर भोजन के विशेष लाभ के कारण से संघ के बीच भेद डाला। हे भिक्षो ! इन तीन असद्धर्मों से पराभूत तथा परवश चित्त वाला होकर देवदत्त विघ्नरूप नरकगामी नादान अप्रतिकार्य ( बना)। लोक में पापः इच्छा वाला कोई उत्पन्न मत हो और पाप इच्छा वालों की जो गति होती है वह इस से जान लो। . ___ जो पण्डित नाम से अति प्रसिद्ध हुआ, तत्त्वज्ञ के नाते अति सम्मानित हुआ और उज्ज्वल जलोपम यश से देवदत्त यशस्वी बना, ऐसा मैंने सुना था । वह देवदत्त प्रमाद के वश होकर तथागत के शरण में न रह कर भयानक चार द्वार वाले अवीचि नरक को पहुँचा । भोजनार्थ में आमिषशब्द का प्रयोग. .... .. द्वे मानि भिक्खवे वे दानानि आमिस दानञ्च धम्मदानन्च, एतदग्गभिलवे इमेसं द्विन्नदानानं यदिदं-धम्मदानं । ... .
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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