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________________ खा जाता। ( १६० ) वितरण की क्या व्यवस्था होनी चाहिए, इत्यादि बातों का विवरण "जैन श्रमण" नामक प्रकरण में दिया जायगा. अतः यहां नहीं लिखा जाता। ___ उक्त अवतरण में बताई गई विकृतियों से चार विकृतियों पर थोड़ा सा विवेचन करेंगे। शेष क्षीर, दधि, सर्पि, तेल और गुड़ इन पांच पर विशेष वक्तव्य नहीं है। नवनीत अर्थात् मक्खन विकृति को शास्त्रकारों ने शुभ विकृतियों में माना है । इसका यह अर्थ हुआ कि पहले जैन श्रमण जिन कारणों से दूध, दही, घृत, आदि विकृतियां लेते थे, उन्हीं कारणों से नवनीत विकृति भी ली जाती थी, परन्तु जब यह विकृति अनेक दिन की बासी मिलने लगी, तब जैनाचार्यों ने इसे अभक्ष्य मानकर लेना बन्द कर दिया, और अपने प्रन्थों में लिख दिया कि मक्खन छाछ से बाहर होते ही बिगड़ने लगता है. इस लिये जैन श्रमणों को इसे भोजन में त्याज्य करना उचित है। कहीं कहीं नवनीत के स्थान में दधिसर अर्थात् दही के ऊपर के चिकने पदार्थ मण्ड को विकृति माना है, जो नवनीत का ही पूर्व रूप है। मधु भी हिंसा जनित होने के कारण, कारण बिना न खाना चाहिए, ऐसी जैनाचार्यों ने मर्यादा बांधी है । मद्य-विकृति को भागे के लिये रखकर पहले हम मांस-विकृति पर थोड़ा सा लिखेंगे। ... यहां नवम विकृति के स्थान में आए हुए मांस शब्द का अर्थ
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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