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________________ ( १८४ ) में बड़ी वृति पहुँचती है, इतना ही नहीं बल्कि मार्ग में अस स्थावर प्राणियों की विराधना का भी अधिक सम्भव रहता है। इस - कारमा से जैन श्रमणों को बड़े भोजों में भिक्षा के लिये जाना वर्जित किया है । यदि उक्त प्रकार की विराधना स्वाध्यायादि व्याघा का सम्भव न हो तो उन भोजन स्थानों में जाकर भ्रमण भिक्षा ला सकते हैं। २ - चारा का द्वितीय अवतरण मांस मस्त्य सूत्र का है, यहां भी मांस शब्द का अर्थ दूसरे प्रकार का मांस अर्थात् फलों को छील काट कर निकाला हुआ गर्भ, साधु गृहस्थ के घर जाय तब तक उस फल गर्भ में से गुठलियां छिलके निकाले न हो तो गृहस्थ के देने पर भी साधु उन्हें ग्रहण न करे, क्यों कि वह एषसीय ( ग्राह्य) प्रासु ( निर्जीव ) नहीं होते । काटने छिलका दूर करने के बाद एक मुहूर्त्त समय व्यतीत होने पर ही वह फल प्रासुक हो सकता है । यदि गुठली तथा बीज भीतर ही मिले हुए तो वह फल प्राक ही माना जाता है और जैन भिक्षु उसे प्रहण नहीं करते, क्योंकि बीज या गुठली को जैनशास्त्रकार सचित ( सजीव ) मानते हैं, और सचित्त पदार्थ के साथ अचित्त पदार्थ जीव मिश्र होने से अप्रासुक माना गया है । f श्राचारात के इस सूत्र से जो विद्वान् जैन श्रमणों पर मांस भाशा का आरोप लगाते हैं, उन्होंने इस उद्धरण में आये हुए "मासु असशिवं" इन शब्दों का अर्थ नहीं समझा, नगर समझा है तो जान बूझ कर उस पर विचार नहीं किया । यदि इन
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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