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________________ 1 १६० ) " बहु अट्टियं पुग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटयं । अच्छियं तदुयं विल्ल, उच्छुखंडव सिंबलिं ॥ ७३ ॥ अप्पे सिया भोश्रणञ्जाए, बहूउज्झिय धम्मियं । द्वितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ७४ ॥ अर्थ - वहु गुठली वाला फल, तथा मेवों का सार भाग, तथा fuse से बनाये गये सकंटक मत्स्य, अस्थिक वृक्ष, तिन्द वृक्ष और बिल्व वृक्ष के फल तथा गन्ने का टुकडा शिम्बा ( फली ) इत्यादि भोजन जात जिसमें खाने योग्य पदार्थ कम होता है, और फेंकने योग्य अधिक उसको देती हुई गृह स्वामिनी को निषेध करे कि इसका खाद्य मुझे नहीं कल्पता । ६ - मडाइणं भंते निरं निरुद्ध भवे निरुद्ध भयपयच े याव निट्टियट्टकरणिज्जे गो पुरण रवि इत्थं तं हव्ब मागच्छति हंता गोयमा ! मडाईणं नियंट्ठ े जाव णो पुरणरवि इत्थत्त हव्व मागच्छति से भेते । किंतिवत्तव्वं सिया मुत्तति वत्तव्यं सिया पारग एत्ति बत्तव्वं सिया परंपरा गएन्ति वत्त० सिद्ध मुझे परिनिव्वुडे अंत कडे सव्व दुक्खप्प हीणेत्ति वत्तव्वं सिया, सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति । अर्थ - हे भगवन् ! मडादी ( मृतादी मृतभक्षक ) निर्ग्रन्थ, जिसने भव प्रपच को रोका है, जिसने अपना कार्य पूरा कर दिया है, वह फिर इस संसार में नहीं आता ? हाँ गौतम ! मृतादी निग्रन्थ फिर यहाँ नहीं आता भगवन् ! उसको क्या कहना
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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