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________________ ८.११०.) वाले गृहस्थ को मुनि-तुल्य कहते थे । क्या ? 'बैल तथा धेनु का मांस मांस बढ़ाने वाला होने से मैं इतका मांस खाऊंगा' इस भाव वाले शब्द याज्ञवल्क्य के मुख से निकल सकते हैं ? जहां तक मैं थोड़े से वैदिक ग्रंथों का अर्थ समझ सका हूँ, यह कहने में कोई संकोच नहीं कर सकता कि महर्षि याज्ञवल्क्य केवल प्रो क्षत मांस ही कभी परिस्थितिवश खाते होंगे, सर्वदा नहीं। याज्ञवल्क्य स्मृति के मधुपर्क में उन्होंने गौ का उल्लेख न करके 'महोतं वा महाजं वा, श्रोत्रियायोपकल्पयेत' यह वाक्य लिखा है। इससे भी यही प्रतीत होता है कि वे वाजसनेयी होने के नाते गौ को यज्ञ के लिए मेध्य मानते थे, न कि मधुपर्क में, अनेक गृह्यसूत्रकारों ने मधुपर्क में गो बांधने का विधान किया है, तब याज्ञवल्क्य उनसे जुदा पडकर बैल अथवा बकरा मधुपर्क के लिए उपकल्पित करने का कहते हैं। इससे यह भी अनुमान किया जा सकता है कि-शतपथ ब्राह्मण का निर्माण होने के उपरांत इन्होंने गौ को अन्य अन्य ऋषियों की भांति 'अघ्न्या मान लिया होगा। । ऊपर के विवेचन से पाठकगण अच्छी तरह समझ सकते हैं कि, अन्य ब्राह्मण तो क्या गो को मेध्य मानने वाले याज्ञवल्क्य स्वयं भी मांस भक्षी नहीं थे। शतपथ ब्राह्मण में उनके मुख से 'अश्नाम्येवाह' ये शब्द कहलाये हैं उनका सम्बन्ध केवल गोमेध यज्ञ में प्रोक्षित किये हुए मांस से है । अध्यापक कौशाम्बी की निराधार और अर्थहीन कल्पना जैन श्रमणोंका मांस भक्षण सिद्ध करने की धुनमें श्रीकौशाम्बी ने 'भगवान बुद्ध' नामक अपनी पुस्तक में पृ० २७० में लिखा है।
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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