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________________ ( १०४ ) घृतं वा यदि वा तैलं विप्रोनाद्यान्नखस्थितम् । यमस्तदशुचि प्राह, तुल्यं गोमांसभक्षणैः ||३०|| अर्थ - नखों पर रहा हुआ घृत अथवा तैल ब्राह्मण न खाय, क्योंकि यमऋषि उसे गोमांस भक्षण के बराबर पवित्र कहते हैं । वैदिक निघण्टु तथा यास्क निरुक्त में गौ का नाम अन्या लिखा है, इससे भी सिद्ध होता है कि ब्राह्मणों की दृष्टि में वैदिक काल से ही गौ वध्य प्रतीत होती आई है. इस स्थिति में यह कहना कि बौद्ध और जैनों ने ब्राह्मणों में से गोमांस भक्षण दूर करवाया इसका कोई अर्थ नहीं रहता । 1 हम ऊपर कह आये हैं कि यज्ञ में से तो गोवध देवताओं के यज्ञ के अनन्तर निकल ही गया था, केवल मधुपर्क में कभी कभी उसका वध अवश्य होता था, परन्तु अधिकांश अतिथियों के गोमोचन करवा देने से बहुधा वहां भी गोवध बन्द सा होगया था, और कार्य अन्य पशु के मांस से अथवा पिष्टसाधित मांस से किया जाता था । धीरे धीरे अन्य पशु के मांस का स्थान भी पिष्टसाधित मांस के ले लेने से मधुपर्क में से भो पशुहत्या पौराणिक काल के पहले ही बन्द हो चुकी थी । अध्यापक कौशाम्बी भव भूति के “उत्तर रामचरित” गत एक मधुपर्क विधि का उल्लेख कर यह बताना चाहते हैं कि भव भूति के समय तक अर्थात् ईशा की सप्तमी सदी तक ब्राह्मणों में गो मांस खाने की प्रथा प्रचलित थी। इसी कारण से भवभूति ने
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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