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(२६०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ धरी अरिहंत राय, करी कर्म निकंद ॥ सुमति पंच तीन गुप्ति युत, दे सुख अमंद ॥२॥ इषु कृति मान कषायथी ए, रहित लेश शुचिवंत ॥ जीव चरित्तकुंहीर धर्म, नमन करत नित संत ॥३॥ इति चारित्रपदचैत्यवंदनम् ॥४॥
॥ अथ नवम श्री तपपद चैत्यवंदन ॥
॥ श्री ऋषभादिक तीर्थनाथ, तद्भव शिव जाण ।। बिहि अंतैरपि बाह्य मध्य, द्वादश परिमाण ॥१॥ बसु कर मित आमोसही, आदिक लब्धि निदान ॥ भेदे समता युत खिणे, दृग्घन कर्म विमान ॥२॥ नवमो श्री तपपद भलो ए, इच्छारोध सरूप ॥ वंदनसें नित हीर धर्म, दूर 'भवतु भवकूप ॥३॥ इति तपपदचैत्यवंदनम् ॥ ४॥
॥ अथ श्रीसिद्धचक्रचैत्यवन्दनम् ॥
॥ श्री अर्हत्पदकाव्यम् ॥ इंद्रवज्रावृत्तम् ॥ जियंतरंगारिजणे सुनाणे, सप्पाडिहेराइसयप्पहाणे ॥ संदेहसंदोहरयं हरते,झाएह निच्चंपि जिणेऽरिहंते ॥१॥