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श्री नवपदजीनी पूजा ॥ (२३५)
॥ पूजा ढाळ ॥ जेम तरुफूले भमरो बेसे, पीडा तस न उपावे। लेइ रस आतम संतोषे, तेम मुनि गोचरी जावे रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ २१॥ पंच इंद्रियने जे नित्य जीपे षट्कायक प्रतिपाल ॥ संयम सत्तर प्रकारे आराधे, वंदु तेह दयाल रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ २२ ॥ अढार सहस्स शीलांगना धोरी, अचल आचार चरित्र ॥ मुनिमहंत जयणायुत वंदी, कीजे जन्म पवित्र रे॥ भविका ॥ सि० ॥ २३ ॥ नवविध ब्रह्मगुप्ति जे पाळे, बारसविह तप शूरा ॥ एहवा मुनि नमीये जो प्रगटे, पूरवपुण्य अंकूरा रे ॥ भविका ॥ सि० ॥२४॥ सोनातणी परे परीक्षा दीसे, दिन दिन चढते वाने ॥ संजमखप करता मुनि नमिये, देश काल अनुमाने रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ २५॥ अप्रमत्त जे नित्य रहे, नवि हरखे नवि शोचेरे ॥ साधु सुधा ते आतमा,शुं मूंडे शुं लोचे रे॥६॥ वीर०॥
॥ इति पंचम साधुपदपूजा समाप्ता ॥ ५॥
॥ढाळ॥