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________________ ૩૧૦ परिशिष्ट (७) पंचपीर तिहां साधीया, पंचनदीना सामी रे। सह गुरु नई सुप्रसन्न थया,संघ उदय सुख कामी रे॥२७॥श्रीजिण०॥ तिहांथी बेडी वालीनई, आया गुरु निज डेरई रे। ढोल दमामा सरणाइ, वाजइ सबद घणेरई रे ॥२८॥ श्रीजिण०॥ सहगुरु सघली विधि साचवी, सघला संघ वंदायारे। उच्छव रंग विनय करी, नरनारीय वधाया रे ॥२९॥ श्रीजिण ॥ याचक जन संतोषीया, दान घणा तिहां दीया रे। साहम्मी वच्छल करी,लाहणि विधिजस लीया रे॥३०॥ श्रीजिण०॥ सुरनर जस कीरति कहइ, जिण सासण जयकारा रे । उच्छव रंग वधामणा, संघ उदय अधिकारा रे ॥३१॥ श्रीजिण०॥ कुशल खेम आणंदसुं, पांगुरी उच्च पधारई रे।। अधिक महोच्छव अनुदिनइ, संघ करइ धनसारई रे॥३२॥श्रीजिण तिहां मुलताण प्रमुख सहू, सिंधु महाजन वलीयां रे । वंदि गुरु निजि थानकइ, पहूचइ मननी रलीयां रे ॥३३॥श्रीजिण०॥ उच्चथी गुरु पांगुरी, देराउरि गुरु मेट्या रे । श्रीजिनकुशल सूरीसरू, नमतां पातक मेट्या रे॥३४॥ श्रीजिण०॥ देराउरथी पांगुरी, माणिकसूरि जुहार्या रे। नवहरि देव नमी करी, जेसलमेरि पधार्या रे ॥३५॥ श्रीजिण ॥ संघ सहु मिली मनरली, राउल भीमनारंदो रे । वंदइ सुह गुरु भावसुं, अधिक मनइं आणंदो रे ॥३६॥ श्रीजिण०॥ अति उच्छव रंगइ करी, आया श्रीजिणचंदो रे। पास जिणेसर भेटिया, सेवक सुरतरुकंदो रे ॥ ३७॥ श्रीजिण० ॥ श्रीजिणमारग उपदिसइ, कुमत कदाग्रह टालई रे। जुगप्रधान गुरुराजीयउ, रीहड कुल उजुवालई रे ॥३८॥ श्रीजिण० ॥ 'समयराज' गुरु गावतां, पूरइ मनह जगीसो रे। श्रीजिणचंदसूरीसरू, प्रतपउ कोडिवरीसो रे ॥३९॥ श्रीजिण ॥ इति श्रीजिणचंदसूरिगुरुरासः समाप्तः । <00 -.
SR No.022908
Book TitleYugpradhan Jinchandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherPaydhuni Mahavirswami Jain Derasar
Publication Year1962
Total Pages440
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size33 MB
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