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________________ १. चौदह राजलोक एवं उसकी व्यवस्था का वर्णन, २. संख्यात, असंख्यात और अनंत का स्वरूप, ३. तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव आदिका परिचय, ४. तमस्काय, अप्कायका विवेचन और ५. आकाशवर्ती अष्टकृष्णराजीकी व्याख्या। पहले परिशिष्ट में चौदह राजरूप जैन विश्व कैसा है ? उसका आकार, प्रकार कैसा है ? सुप्रसिद्ध तीनों लोक कैसे है ? कहाँ है ? एक राज किसे कहें ? इत्यादि अनेक विगतो। दूसरे में कालकी - गिनती जैसी जैन शास्त्रोंमें बताई गई है, वैसी अन्य शास्त्रों अथवा दर्शनकारों द्वारा बताई गई ज्ञात नहीं होती। संख्यात, असंख्यात और अनंतका मान-प्रमाण क्या है उसकी विस्तारसे समजाइश। तीसरे छ में जैन मान्यता अनुसार ज्ञात किये जानेवाले ईश्वर या तीर्थंकररूप व्यक्ति तथा उस समयमें होनेवाले १ चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, बलदेव आदि व्यक्तियोंका परिचय, चौथे में तमरकाय आर पाँचवें में * अष्टकृष्णराजी, इन दोनों वस्तुओंका स्थान आकाशवर्ती है, इन सबका परिचय कराया गया है। परमधर्मश्रदालु आराधक-साधक सुश्रावक श्री धनरुपमलजी नागोरी जो एक कुशल और प्रभावकछु क्रियाकार है। राजस्थान में अनेक स्थलों में प्रतिष्ठा और अनुष्ठानसे जैनसंघको बहुत लाभान्वित किया है है। श्री धनरुपमलजी मेरे श्रद्धेय आत्मीय सुश्रावक है। मेरी साथ उनका हार्दिक स्नेह संबंध है और छू मेरी विनती से उसने समय निकालकर अतिपरिश्रम करके मेरा गुजराती पाँच परिशिष्ट ग्रन्थ परसे हिन्दी छु * अनुवाद किया इसलिये मैं उसको बहुत ही धन्यवाद देता हूँ। और ऐसे ही सहयोग सदैव देते रहे यही * शुभकामना ! इस पुस्तिका में कोई शास्त्रविरूद्ध विधान हो गया हो तो मिच्छामि दुक्कडम् । सं. २०४६, आषाढ शुक्ल ५ यशोदेवसूरि साहित्य मंदिर, पालीताणा Rai
SR No.022874
Book TitlePrastavana Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year2006
Total Pages850
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size28 MB
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