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________________ | बृहतसंग्रहणी ग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय सूचना :-इस विशालकाय ग्रन्थमें क्या क्या विषय है, इसका समुचित परिचय करानेका यहाँ प्रयास किया गया है। * इस भूमि पर दृष्टि से दिखाई देनेवाला जो विश्व है, इतने छोटे-से विश्वका हम मुख्यतः 'दुनिया' * शब्दसे व्यवहार करते हैं। क्योंकि इसका प्रमाण-आकारप्रकारात्मक स्थिति बहुत छोटी है किन्तु वास्तविक रूपमें उसका विश्व शब्दसे व्यवहार नहीं किया जाता। क्योंकि दूसरा शब्द “विश्व'' है जिसमें-दृश्यof अदृश्य पृथ्विया, धरती और आकाशमे तथा पातालमें विद्यमान देव एवं पातालमें विद्यमान नारक है। इस सभी वसओका जिसमें समावेश होता हो, उसे वास्तविक रूपसे 'विश्व' शब्दसे सम्बोधित किया जा सकता है। इसलिये जैन परिभाषामे विश्वको लोक शब्दसे परिचित कराया जाता है। इतर धर्ममें विक्षक लिये ब्रह्माण्ड शब्दका प्रयोग होता है। जैनसमाज लोक शब्दमें 'स्वर्ग, मृत्यु, और पाताल इन तीनो । ग्बलोंका समावेश करता है। जैनोंका जो लोक है वह आकारमें 'खड़ा एवं गोलाकार है। इस लोकक पातालके अन्नपं सातवाँ नरक विद्यमान है उसके अंतिम ऊपरके कोने पर सिद्धशिना-मानस्थल है। साता है नरकके तलभागके नीचेसे लेकर लोकके ऊपरी अन्तिम लोक पर पहुँचते हैं तब उसका माप जनशास्त्र में चोदह राज वतन्नाया है। 'र' शब्द जैनधर्मकी परिभाषाका 'प्रमाण' बतलानेवाला शब्द है। अतः प्रश्न होगा कि 'एकराज अर्थात् कितना?' एक राज अर्थात् असंख्य कोटयनुकोटि योजन। उवाकारमें स्थित यह राजलोक चौड़ाईमें एकसमान नहीं होता है। इसकी छोटीसे छोटी चौड़ाई एक रात प्रमाणकी, मध्यम पाँच राज प्रमाणकी और पातालमें सातवें नरकके तलभागमें सात राज जिननी चौड़ाई है। तात्पर्य यह है कि- 'यह लोक ऊँचाईमें चौदहराज जितना और चौड़ाईमें सात राज जितना है। 2 और इस लोकके मध्यभागमें हमारे मनुष्यलोककी धरती विद्यमान है। हमारी इस धरतीके नीचेवाले भागमें । जाते हैं तब ‘समभूतला' नामसे पहचानी जानेवाली पृथ्वीका स्थान है। जैनशास्त्रमें यह समभूतला समस्त प्रकारके मापोंको निश्चित करनेका केन्द्रस्थान है। समभूतला पृथ्वीसे सात राज नीचे पाताललोक और छु सातराज ऊपर ऊर्ध्वलोक है। (लोकका आकार कैसा है, उसका चित्र इस ग्रन्थमें दिया है, उसे देखिये।) इस प्रकार चौदहराज प्रमाण लोकसे ज्ञेय जैन विश्वमें तीन विभाग हैं। ऊपरका विभाग जिसे 'स्वर्गलोक', मध्यके विभागको ‘मध्यलोक' (तिर्यक् लोक) और अपनी धरतीके नीचेवाला भाग जो अरबों असंख्य मील प्रमाणवाला है उसे पाताललोक-अधोलोक कहा जाता है। इस प्रकार 'ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् को प्रचलित भाषामें 'स्वर्ग, मृत्यु और पाताल' शब्दसे जाना जाता है। यह लोक-संसार चार गतिरूप है। देव, नरक, मनुष्य तथा तिर्यंच! ये सभी जीव तीनों लोकमें स्थित हैं। उन चारों गतिके जीवों-पदार्थोंका वर्णन इस ‘संग्रहणी' ग्रन्थमें दिया गया है। इस लोक-विश्वमें केवल हिलते-चलते जीवोंके रहनेका स्थान चौदह राजलोकके मध्यमें एक राज जितनी लम्बी-चौड़ी जगह है जिसे जैनधर्मकी तात्त्विक परिभाषामें 'वसनाड़ी' कहा जाता है, इसीमें है। असनाडी नाम इस लिये दिया गया है कि-जगतके जीव दो प्रकारके हैं-१. स्थावर आर२. वस। जिन
SR No.022874
Book TitlePrastavana Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year2006
Total Pages850
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size28 MB
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