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________________ 8 एक विशेष बात यह भी जाननी आवश्यक है कि इस स्तोत्र को पढ़ने का अधिकार श्री संघ के चारों ही अंगों को है। __-मुनि यशोविजय * मूलमंत्र के विषय में-स्तोत्र में या अलग से जब आप मूल मंत्र छापते हैं तो 'असिआऊसा' * के आगे जो आप ॐ छापते हैं, वह सर्वथा अशुद्ध है। प्रथम और बीच में, इस प्रकार दो ॐ की 4. इस मंत्र में आवश्यकता नहीं। इससे मूलमंत्र एकदम अशुद्ध हो जाता है। मूलमंत्र में 'चारित्रेभ्यो ही नमः' सभी छपवाते है। किन्तु नमः के आगे ही छपवाना सर्वथा अनुपयुक्त है। आप कभी मत छपवाइयेगा। यदि ६-१० श्लोकों का खूब समझपूर्वक प्रथम अन्वय करके फिर जो अनुसंधान करेंगे तो इस बात की सही खात्री हो जायेगी। मूलमंत्र में 'सम्यग्दर्शन' रूप प्रकाशन मिलता है। इसमें सम्यग् शब्द को श्वेताम्बरीय आम्नायने स्वीकार नहीं किया है। यद्यपि ६८ वें की सदी हस्तलिखित तथा प्रतियों और प्रकाशित पुस्तकों में आपको 'सम्यग्' शब्द देखने को मिलेगा। परन्तु बहुत संशोधन और ग्रन्थों के व्यापक निरीक्षण के अन्त में मैं इस निर्णय पर आया हूँ कि 'सम्यग्' शब्द की आवश्यकता नहीं। इसके अतिरिक्त पूज्य श्वेताम्बराचार्य श्री सिंहतिलकसूरिजीने भी 'सम्यग्' शब्द स्वीकार नहीं किया है। निष्कर्ष यह है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर मतानुसार मूलमंत्र क्रमशः २५ तथा २७ अक्षरों का होता, है। अतः हमने सम्यग शब्द निकाल कर २५ अक्षरों का मूलमंत्र प्रकाशित किया है। सम्यग् शब्द रखना चाहिये यह वात ऋषिमंडल के श्लोको में से कहीं भी नहीं निकलती। यह मैं अनुभव करता हूँ कि समाज में २७ अक्षरों की प्रसिद्धि इतनी व्यापक और गहरी है कि मेरी वात जल्दी * ही गले नहीं उतरेगी, उलटा विरोध खड़ा होगा, लेकिन एक अच्छे शोधक को जो सत्य प्रतीत हो उसे प्रगट करना ही चाहिये, यह सोचकर सत्यता आपके समक्ष रक्खी, अब आपको चाहिये आप अपनी बुद्धि से इसे सत्य की कसौटी पर परखें। मूलमंत्र तो वीस से अधिक उपलब्ध हुए * हैं और किसी-किसी मन्त्र में २७ से अधिक अक्षर देखने में आये हैं, फिर भी यहां हमने खूब । * ही प्रचलित और अनेक प्रकार से सुयोग्य मूलमन्त्र पसंद किया है। २. 'तूर्यस्वरसमायुक्तो' सैंकड़ों वर्षों से यह पाठ चला आता है। सेंकडे १५ टका पुस्तकों में ऐसा ही पाट मिलता है। बाद में जो पुस्तकें छपी इसी परम्परानुसार उनमें भी यही पाठ छपता रहा है, किन्तु यह पाठ एकदम अशुद्ध है। गाथा १६ में सही पाठ 'तूर्यस्वरकलायुक्तो' है, यह निर्विवाद और एक हजार टका सही पाठ है, अतः दिमाग को अधिक कसरत कराये बिना, निःशंकरूप से 'समा' 8 के स्थान पर 'कला' शब्द छापेंगे, ऐसी आशा है। ३. गाथा ४५ के प्रारंभ में अधिकांश पुस्तक में ॐ ह्रीं श्रीं,' पाठ देखने को मिला है, लेकिन ी श्री पर अर्धचन्द्र बिन्दु की जरूरत नहीं, क्योंकि यह दो मन्त्र बीज नहीं है, लेकिन ही, श्री ये तो देवियों के नाम हैं। और क्रम में भी प्रथम श्री और ही होना चाहिये। अर्थात् ॐ श्रीः हीः, । ऐसा पाठ और क्रम सही है तो इस प्रकार छापना चाहिये, यह भी एक निश्चित यथार्थ सत्य है।। छपानेवाले साधु-साध्वीजी, प्रकाशक-और पुस्तक विक्रेता जरूर ध्यान देंगे, ऐसी आशा है। -लेखक
SR No.022874
Book TitlePrastavana Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year2006
Total Pages850
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size28 MB
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