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________________ बारहवाँ भाग। अंक ११-१२ Roman mamta कार्तिक मार्ग०२४४२ नवम्बर, दिस०१९१६ mmsamme होते हैं। स्वदेशी वस्तु के प्रेमियों को अवश्य नमूना मंगाकर देखना चाहिए। कारखाने में कंबल कशमीरा व दरी वगैरह भी बनते हैं, यह और भी हर्ष की बात है। 'जैन गजट' द्वारा निरन्तर स्वदेशी का प्रचार किया जाता रहा। पत्र में प्रकाशित एक कविता, जिसका शीर्षक था-'शक्कर संग्राम देशी-विदेशी का झगड़ा' भी बहुत लोकप्रिय हुई। इस कविता में देशी और विदेशी शक्कर के बीच बहस दिखाकर अन्त में देशी शक्कर को विजयी दिखाया गया। जैन गजट ने बाद के तीनों आन्दोलनों में भी पूर्व की भाँति ही भाग लिया तथा जैन समाज को आन्दोलनों में भाग लेने को प्रेरित किया। जैन गजट' की भाँति ही 'जैन हितैषी' पत्रिका ने हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः । भी स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने को देशवासियों को प्रेरित किया। जैन हितैषी जैनहितैषी। का प्रकाशन पन्नालाल जैन (मुरादाबाद) ने प्रारम्भ किया था। उसके विषय में तीर्थंकर पत्रिका में उल्लेख PanasnaNASRARARANARoy मिलता है-जैन हितैषी बीसवीं सारे ही संघ सनेहके सूतसौं, संयुत हों, न रहे कोउ देषी ।। प्रेमसौं पाले स्वधर्म सभी, रहैं सत्यके साँचे स्वरूप-गवेषी । सदी के आरंभिक दो दशकों वैर विरोध न हो मतमेदतें, हो सबके सब बन्धु शुभेषी। में प्रकाशित एक प्रतिनिधि भारतके हितको समझें सब, चाहत है यह जैनहितैषी ।। मासिक था, जो 'सरस्वती' BREASERSEASEASERVerseRSERIA और 'विशाल भारत' का मद्रबाहु-संहिता। समकालीन था। 'जैन (ग्रन्थ-परीक्षा-लेखमालाका चतुर्थ लेख ।) हितैषी' के माध्यम से जैन पत्र-पत्रिकाओं के पाठक को (ले. श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार। | जिन लोगोंका अभीतक यह खयाल रहा है के मध्यवतीं किसी समयमें हुआ है। अस्तु । एक भिन्न युग में प्रवेश का कि यह ग्रंथ (भद्रबाहुसंहिता) मबाहु श्रुत- इस ग्रंथके साहित्यकी जाँचसे मालम होता है। अवसर मिला। जैन हितैषी बलीका बनाया हुआ है-आजसे लगभग २३०० कि जिस किसी व्यक्तिने इस ग्रंथकी रचना की। वर्ष पहलेका बना हआ है उन्हें पिछला लेख है वह निःसन्देह अपने घरकी अकल बहुत कम को ही इस बात का श्रेय है पढ़नेसे मालूम होगया पढ़नेसे मालम होगया होगा कि यह अंथ वास्त- रखता था और उसे अथका सम्पादन करना। वर्म भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ नहीं है, नहीं आता था। साथ ही, जाली अंथ बनानेके। न उनके किसी शिष्य-अशिष्यकी रचना है और कारण उसका आशय भी शुद्ध नहीं था । यही न विक्रमसंवत् १६५७ से पहलेहीका बनाहआ वजह है कि उससे, अंधकी स्वतंत्र रचनाका है। बल्कि इसका अवतार विक्रमकी १७ वीं होना तो दूर रहा, इधर उधरसे उठाकर रक्खे | हुए भी अपने देशवासियों ।। शताब्दिके उत्तरार्धम-संवत् १६५७ ओर १६६५ ए प्रकरणोंका संकलन भी ठीक तोरसे नहीं को आधुनिक संदर्भो से जोड़ा । और उनमें एक अटूट जैन हितैषी का पुराना अंक २ भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में जैन पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका :: 163
SR No.022866
Book TitleBhartiya Swatantrata Andolan Me Uttar Pradesh Jain Samaj Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmit Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2014
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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