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________________ दिया है कि हमारी प्रत्येक परिस्थिति पूर्व संचित किसी न किसी संस्कार रूप इच्छा व कार्य का ही परिणाम होती है। संस्कार संरचना के उपर्युक्त रूप को जैन दर्शन की भाषा में 'कर्म' कहा जाता है। इस प्रकार जैन दर्शन की यह मान्यता कि पदार्थों की प्राप्ति एवं परिस्थितियों के निर्माण में 'कर्म-फल' ही कारण है, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पुष्ट होता है। जैसे जैन दर्शन में कर्म को पुद्गल, अचेतन भौतिक पदार्थ माना जाता है उसी प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान भी इसे भौतिक रूप में स्वीकार करता है। आधुनिक मनोविज्ञान विचार व विचारों की तरंगों का रूप, रंग, आकृति आदि तो मानता ही है साथ ही इन तरंगों की प्रेषण व ग्रहण-क्रियाओं को भी स्वीकार करता है। विचारों की इसी प्रेषण व ग्रहण विधि को 'टेलीपैथी' कहा जाता है। टेलीपैथी के प्रयोग में एक व्यक्ति द्वारा हजारों मील दूर सागर में निमग्न पनडुब्बी में बैठे व्यक्ति को विचारों द्वारा संदेश भेजने में रूस व अमेरिका इन दोनों देशों ने पर्याप्त सफलता प्राप्त की है। टेलीपैथी की महत्ता इससे विशेष बढ़ जाती है कि जहाँ पनडुब्बी में रेडियो तरंगें भी पहुंचने में असमर्थ हैं वहाँ विचारों की तरंगें पहँचने में समर्थ हैं। इसका कारण है विचार तरंगों का रेडियो की विद्युत् तरंगों से भी अति सूक्ष्म होना। ऊपर कथित संस्कारों या कर्मों का अंतस्तल पर अंकित होना ही 'कर्म का बन्धन' होना है। जीव में रागादि भावों से आकर्षण शक्ति उत्पन्न होती है। राग रूप कषाय की आकर्षण शक्ति से कर्म परमाणुओं (कार्मण वर्गणा) का खिंचाव होता है और वे आत्मा से संपृक्त हो जाते हैं। मन, वचन, काया की प्रवृत्ति के अनुरूप ही आत्मा में उनका रूप अंकित होता है, क्योंकि प्रवृत्ति प्राणी की प्रकृति का अनुगमन करती है। अतः बंध के इस रूप को 'प्रकृतिबंध' कहा गया है। प्रकृतिबंध में प्रयुक्त कार्मण वर्गणाओं की मात्रा को 'प्रदेशबंध' कहा जाता है। इन दोनो कर्मबंधों का सम्बन्ध मन, वचन, काया की प्रवृत्तियों से है। परन्तु कर्मों के इन भौतिक दलिकों को खींचकर लाने वाला एवं उन्हें आत्मा में अवस्थित करने वाला है-कषायभाव। कषाय या रागभाव की तरतमता के अनुसार ही रस के अनुभव की तरतमता होती है व आत्मा के साथ स्थित रहने का समय निर्भर करता है। रसानुभूति की इस तरतमता को ‘अनुभागबंध' 'रसबंध' या 'अनुभाव बंध' कहा गया है और आत्मा के साथ कर्मों के अवस्थित रहने के समय को स्थितिबंध' कहा है। सत्ता, उदय, उदीरणा, उद्वर्तन, संक्रमण, निधत्ति, निकाचना आदि कर्मों के सभी रूपों का वर्तमान मनोविज्ञान के संदर्भ में व्यावहारिक व प्रायोगिक रूप प्रस्तुत किया जा सकता है। आस्रव-संवर तत्त्व [77]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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