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________________ और हटता है, जिससे ग्रन्थि-भेदन का प्रत्यक्षीकरण तथा आत्म-साक्षात्कार होता है। फलस्वरूप अंत:करण में जीवन के प्रति दृष्टि बदल जाती है अर्थात् 'विषय भोग ही जीवन है' यह मिथ्या मान्यता (मिथ्यात्व) बौद्धिक चिंतन स्तर पर तथा आंतरिक (चैतन्य के) स्तर पर मिट जाती है। यह प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है कि भोग का सुख, सुख नहीं है, प्रत्युत उत्तेजना, आकुलता, पराधीनता एवं जड़ता उत्पन्न करने वाला होने से दुःख रूप है। अतः भोग जीवन नहीं है। निर्विकल्प एवं निर्विकार होने पर जो निज-रस आता है वह अक्षय-अखंड एवं स्वाधीन होता है। इस प्रकार सत्य के साक्षात्कार के आधार पर भोग के सुख में दुःख और त्याग में सुख अनुभव करता है इस प्रकार जीवन के प्रति दृष्टि बदल जाना ही सम्यग्र्शन है। दर्शन है निर्विकल्प होना, और निर्विकल्प होने से चित्त शान्त होता है। शान्तचित्त में, समता भरे चित्त में यथार्थता का, चिन्मयता का अनुभव होता है जो सम्यग्दर्शन है और इससे विवेक रूप सम्यग्ज्ञान प्रकट होता है। ___ इस दृष्टि से दर्शनगुण का विकास ही सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में, दर्शनमोह के क्षय में हेतु है और सम्यग्दर्शन 'सम्यग्ज्ञान' की उत्पत्ति में हेतु होता है। सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के अनुरूप आचरण सम्यक् चारित्र है, जिसका फल मुक्ति के रूप में प्रकट होता है। ___ दर्शनोपयोग (निर्विकल्पता) सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में तथा दर्शनमोह के क्षय में सहायक होता है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान में सहायक होता है। सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान के अनुरूप आचरण करने (चारित्र पालन) से दर्शन व ज्ञान गुण के आवरण का क्षय होता है, जिससे दर्शन व ज्ञान गुण प्रकट होते है। इस प्रकार दर्शनोपयोग व दर्शन मोहनीय के क्षय करने में सहायक होता है। इस प्रकार दर्शनोपयोग, सम्यग्दर्शन, दर्शनगुण परस्पर में पूरक व सहायक हैं। आगे जाकर, अंत में पूर्ण दर्शन, पूर्ण ज्ञान अथवा अनंतदर्शन अनंत ज्ञान के रूप में प्रकट होकर ये साधक के जीवन के अभिन्न अंग बन जाते हैं। फिर साधक-साधना-साध्य एक रूप होकर सिद्धत्व को प्राप्त हो जाते हैं। सिद्धत्व की प्राप्ति में ही जीवन की सिद्धि है, सफलता है, पूर्णता है। सम्यक् चारित्र का स्वरूप एवं साधना के तीन रूप वह क्रिया या आचरण जिससे लक्ष्य या साध्य की उपलब्धि हो, उसे चारित्र या साधना कहा जाता है। प्राणिमात्र का साध्य है मुक्ति प्राप्त करना, दु:खों का आस्रव-संवर तत्त्व [75]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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