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________________ है। दिशा में जाने की मर्यादा (सीमित) करना, भोग-परिभोग को सीमित करना एवं अनर्थ दंड का त्याग करना, इन तीनों का आजीवन व्रत लेना तीन गुण व्रत कहे गये हैं। आध्यात्मिक प्रगति में सहायक चार शिक्षा व्रत हैं- १. सामायिक, २ देशव्रत, ३. पोषध एवं ४. अतिथि संविभाग ये श्रावक के बारह व्रत हैं। दर्शनगुण एवं सम्यग्दर्शन सत्य का साक्षात्कार होना सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन की उपलब्धि स्वानुभव से होती है, केवल चिन्तन या ज्ञान से नहीं। जीव-अजीव, जड़-चेतन भिन्नभिन्न हैं, यह ज्ञान एक बालक से लेकर नौ पूर्वधर ज्ञानी को भी होता है। कौन बालक नहीं जानता है कि कलम, कागज, कमीज, कमरा, किताब, कलश आदि जड़ हैं और मैं चेतन जीव हूँ । इसी प्रकार नौ पूर्वधारी मिथ्यात्वी जीव भी जो तत्त्वों के ज्ञान को खूब जानता है, जीव-अजीव तत्त्वों पर सैकड़ों भाषण दे सकता है व सैकड़ों ग्रंथ लिख सकता है, परन्तु जीव-अजीव के भेद व भिन्नता का इतना ज्ञान होने पर भी उसे सम्यग्दर्शन हो, यह आवश्यक नहीं है। कारण कि इस बौद्धिक ज्ञान का प्रभाव बौद्धिक स्तर पर ही होता है, आध्यात्मिक स्तर पर नहीं। आध्यात्मिक स्तर पर प्रभाव तभी होता है, जब साधक अन्तर्यात्रा कर आन्तरिक अनुभूति के स्तर पर देह से अपने को अलग अनुभव करता है जिससे निज चैतन्य स्वरूप का दर्शन होता है। यही सम्यग्दर्शन है। केवल जीव-अजीव या जड़-चेतन को भिन्न-भिन्न जान लेने या मान लेने से, ऐसा चिंतन करते रहने से या अपने को ऐसा निर्देश देने (आत्म-सम्मोहन) मात्र से सम्यग्दर्शन होना संभव नहीं है। इन सबसे सम्यग्दर्शन के लिए प्रेरणा मिल सकती है, परन्तु सम्यग्दर्शन की उपलब्धि तो तभी संभव है जब साधक अंतर्मुखी होकर स्व-संवेदन करता है तथा देहातीत बन कर जड़ देह से भिन्न अपने चैतन्य स्वरूप का दर्शन करता है। आशय यह है कि जड़-चेतन की भिन्नता पर चिन्तन व चर्चा करके आत्मनिर्देशन देकर अपने को भेद-विज्ञानी व सम्यग्दृष्टि मान लेना भूल है, अपने आपको धोखा देना है। अतः अंतर्मुखी होकर स्व-संवेदन करते हुए जब तक देहातीत चिन्मयचैतन्य अवस्था की अनुभूति न हो जाय, तब तक सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिये सतत पुरुषार्थ करते रहना चाहिये। वस्तुतः दर्शन अनुभूति का विषय है ज्ञान का नहीं। फिर चाहे वह दर्शन सम्यग्दर्शन रूप हो अथवा दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट आस्रव-संवर तत्त्व [73]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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