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________________ 'तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप' प्रकरण में लेखक ने प्रतिपादित किया है कि आस्रव, संवर, निर्जरा आदि तत्त्वों का आधार पाप कर्म है, पुण्य नहीं। जब आस्रव त्याज्य होता है तो पुण्य का आस्रव त्याज्य नहीं होता, पाप का ही आस्रव त्याज्य होता है। संवर भी पाप प्रवृत्ति या सावध प्रवृत्ति का ही किया जाता है, शुभ प्रवृत्ति का नहीं। इसी प्रकार साधना के द्वारा निर्जरा भी पाप कर्मों की ही की जाती है, पुण्य कर्मों की नहीं। पुण्य कर्म अघाती होते हैं, अतः वे लेशमात्र भी आत्मगुणों को हानि नहीं पहुँचाते। लेखक का तो 'कर्म सिद्धान्त और पुण्य-पाप' प्रकरण में यह भी मन्तव्य है कि अघाती कर्म की पाप प्रकृतियों से भी जीव के किसी गुण का घात नहीं होता है तब पुण्य प्रकृतियों को जीव के लिए घातक या हेय मानना नितान्त भ्रान्ति है। इस प्रकरण में पुण्य-प्रकृतियों के सम्बन्ध में विशेष सूचनाएँ दी गई हैं, यथा (१) जब तक पुण्य कर्म-प्रकृतियों को द्विस्थानिक अनुभाग बढ़कर चतुःस्थानिक नहीं होता है तब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता है और यह चतुःस्थानिक अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट नहीं होता है तब तक केवलज्ञान नहीं होता है। (पृष्ट ३९) (२) देवद्विक पंचेन्द्रिय जाति आदि ३२ पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध उसी भव में मुक्ति प्राप्त करने वाले जीव ही करते हैं। (पृष्ठ ३८) (३) चौदहवें अयोगी गुणस्थान के द्विचरम समय तक चारों अघाती कर्मो की ८५ पुण्य-पाप प्रकृतियों की सत्ता रहने पर भी केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि क्षायिक लब्धियाँ प्रकट होने में बाधा उपस्थित नहीं होती। (पृष्ठ ४४) (४) मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सुभग, आदेय, यशकीर्ति आदि पुण्यप्रकृतियों के उदय की अवस्था में ही साधुत्व (महाव्रत) तथा वीतरागता की साधना एवं केवलज्ञान, केवलदर्शन की उत्पत्ति सम्भव है। (५) चारो अघाती कर्मों की मनुष्यायु, उच्चगोत्र, मनुष्यगति, यशकीर्ति आदि १२ पुण्य प्रकृतियों का उदय चौदहवें गुणस्थान में मुक्ति-प्राप्ति के अन्तिम समय तक रहता है। (पृष्ठ ४१) पुण्य-पाप का सम्बन्ध अनुभाग बन्ध से है। जब परिणामों में विशुद्धि होती है तो पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि होती है तथा पाप प्रकृतियों के अनुभाग में कमी होती हैं। इससे पुण्य एवं पाप के परस्पर विरोधी होने को बोध होता है। [60] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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