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________________ और अशुभ भी । योगों के शुभत्व और अशुभत्व का आधार भावना की शुभाशुभता है । शुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग शुभ और अशुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग अशुभ है । कार्य-कर्मबन्ध की शुभाशुभता पर योग की शुभाशुभता अवलंबित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से सभी योग अशुभ ही हो जायेंगे, कोई योग शुभ नहीं नहीं रह जायेगा, जबकि शुभ योग में भी आठवें आदि गुणस्थानों में अशुभ ज्ञानावरणीय आदि पाप प्रकृतियों का कर्मों का बंध का कारण होता है । शुभ योग का कार्य पुण्य - प्रकृति का बंध और अशुभ योग का कार्य पाप प्रकृति का बंध है । प्रस्तुत सूत्रों का यह विधान आपेक्षिक है, क्योंकि विद्यमान अवस्था में (कषाय) की मंदता के समय होने वाला योग शुभ और कषाय की तीव्रता (वृद्धि) से होने वाला योग अशुभ है। जैसे अशुभ योग के समय प्रथम आदि गुणस्थानों में ज्ञानावरणीय आदि सभी पुण्य-पाप प्रकृतियों का यथासंभव बंध होता है वैसे ही छठे आदि गुणस्थानों में शुभयोग के समय भी पुण्य-पाप प्रकृतियों का यथासंभव बंध होता है। फिर शुभ योग का पुण्य बंध के कारण रूप और अशुभ योग का पाप बंध के कारण रूप में अलग-अलग विधान कैसे संगत हो सकता है ? इसलिए प्रस्तुत विधान मुख्यतया अनुभाग बंध की अपेक्षा से है । शुभ योग की तीव्रता के समय पुण्य - प्रकृतियों का अनुभाग बंध (रस) की मात्रा अधिक और पाप प्रकृतियों के अनुभाग की मात्रा अल्प निष्पन्न होती है । इससे उलटे अशुभ योग की तीव्रता के समय पाप-प्र - प्रकृतियों का अनुभाग अधिक और पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बंध अल्प होता है। इसमें जो शुभयोगजन्य पुण्यानुभाग की अधिक मात्रा तथा अशुभयोगजन्य पापानुभाग की अधिक मात्रा है, उसे प्रधान मानकर सूत्रों में अनुक्रम से शुभ योग का पुण्य का और अशुभ योग को पाप का कारण कहा गया है। शुभयोग जन्य पापानुभाग की अल्पमात्रा और अशुभयोग जन्य पुण्यानुभाग की अल्प मात्रा विवक्षित नहीं है । क्योंकि लोक की भाँति शास्त्र में भी प्रधनतापूर्वक व्यवहार का विधान प्रसिद्ध है। पं. श्री सुखलाल जी ने तत्त्वार्थसूत्र अ. १ सूत्र ४ की टीका में कहा है- पुण्यपाप दोनों द्रव्य और भाव रूप से दो-दो प्रकार के हैं। शुभ कर्म पुद्गल द्रव्य-पुण्य और अशुभ कर्म पुद्गल द्रव्यपाप है । इसलिए द्रव्य पुण्य तथा पाप बंध-तत्त्व में अंतर्भूत है, क्योंकि आत्म-सम्बद्ध कर्म पुद्गल या आत्मा और कर्म पुद्गल का सम्बन्धविशेष ही द्रव्यबंध तत्त्व है । द्रव्य पुण्य का कारण शुभ अध्यवसाय जो भाव पुण्य है और द्रव्य पाप का कारण अशुभ अध्यवसाय है जो भाव पाप है- ये दोनों पुण्य-पाप तत्त्व [35]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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