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________________ कामना उत्पत्ति से अशांत व खिन्न होना भी क्रोध है। इससे प्रसन्नता का हनन व खिन्नता रूप दुःख होता है। (७) मान- अहंकार करना मान है। जाति, कुल, बल, रूप, शक्ति, सम्पत्ति, ज्ञान, विद्या, बुद्धि, योग्यता, भाषण, पद आदि का मद करना, सम्मान चाहना, अभिनंदन चाहना, अपने को महान् और दूसरों को हीन समझना, अपना गुण-गौरव गाना या दूसरों से गुण गाथा कराना, उसे सुनकर हर्ष होना, अपमान का बुरा लगना, अपने को असामान्य मानना आदि मान के अगणित प्रकार हैं। मृदुता को खो देना, भेद व भिन्नता का भाव पैदा होना, पर या विनाशी वस्तुओं योग्यता व पात्रता के आधार पर अपना मूल्यांकन करना भी मान है। इससे भेद-भिन्नता व अलगाव रूप दोष व दुःख उत्पन्न होते हैं। (८) माया- कपट करना या धोखा देना माया है। अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को भुलावे में डालना, दूसरों से लेख व पुस्तकें लिखवाकर उस पर अपना नाम देना, ऊपर से मधुर बोलना, भीतर कटुता भरा होना, आश्वासन देकर उससे मुकरजाना, विश्वासघात करना, झूठा प्रदर्शन करना, कूटनीति करना आदि माया के अनेक रूप हैं। ऋजुता-सरलता-सहजता, स्वाभाविकता न होकर वक्रताकृत्रिमता-कुटिलता होना भी माया है। इससे मित्रता का विच्छेद व वैरभाव की उत्पत्ति होती है। (९) लोभ- प्रलोभन वृत्ति का होना लोभ है। अप्राप्त को प्राप्त करने की कामना, प्राप्त को बनाये रखना, संचय वृत्ति, लाभ की इच्छा आदि लोभ के अनेक प्रकार हैं। सुख का प्रलोभन भी लोभ है। लोभवृत्ति से अभाव का अनुभव होता है जो दरिद्रता का द्योतक है। (१०) राग- किसी भी वस्तु, व्यक्ति, स्थिति आदि की अनुकूलता के प्रति आकर्षण होना राग है। पर पदार्थों के प्रति आसक्ति, विषय-सुख की अभिलाषा भी राग ही है। राग आग है जो आत्मा को सदैव प्रज्वलित करती रहती है। राग ठंडी आग है। (११) द्वेष- प्रतिकूलता के प्रति अरुचि होना द्वेष है। वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति की प्रतिकूलता में उसके प्रति दुर्भाव होना, उसका विनाश चाहना, उसे बुरा समझना, उन पर आक्रोश होना, बुरा जानना आदि द्वेष के अनेक रूप हैं। [32] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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