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________________ मिलता है । अत: जिन्हें दुःख से, अनिष्ट से बचना इष्ट है उन्हें इन सब दुष्कर्मों से, पापों से बचना ही होगा। कोई पाप भी करे और उसके परिणाम से दुःख न पावे यह कदापि संभव नहीं है। पाप के त्याग से ही दुःख से मुक्ति पाना संभव है, दुःख से मुक्ति पाने का अन्य कोई उपाय नहीं है । अतः पाप के त्याग में ही सबका कल्याण है। जैन धर्म में आवश्यक सूत्र के अनुसार पाप अठारह है यथा- (१) प्राणातिपातहिंसा करना (२) मृषावाद - झूठ बोलना (३) अदत्तादान - चोरी करना (४) मैथुन (५) परिग्रह (६) क्रोध (७) मान (८) माया (९) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह (१३) अभ्याख्यान - झूठा कलंक लगाना (१४) पैशुन्य - चुगली करना (१५) पर-परिवाद - निंदा (१६) रति- अरति (१७) मायामृषावाद - कपटयुक्त झूठ बोलना और (१८) मिथ्यादर्शन शल्य। (१) प्राणातिपात - प्राणों का अतिपात करना प्राणातिपात है । प्राण दस हैंपाँच इन्दियाँ, मन, वचन, काया, श्वासोच्छ्वास एवं आयुष्य । इनमें से किसी भी प्राण का हनन करना हिंसा या प्राणातिपात है । प्राणों के अतिपात से पीड़ा होती है। पीड़ा किसी को भी पसंद नहीं है। पैर में एक काँटा चुभ जाय, कपड़े में एक घास की सली आ जाय तो उसकी पीड़ा भी सहन नहीं होती । जब तक काँटा न निकाल दिया जाय, सली दूर न कर दी जाय, चैन नहीं पड़ता है। जब पैर की अंगुली में एक कांटा चुभन से भी इतनी पीड़ा होती है तो पूरी अंगूली काटने में कितनी भयंकर पीड़ा होती है, इसे तो भुक्तभोगी ही जान सकता है । अंगुली से भी अधिक भयंकर पीड़ा पैर का फाबा काटने में होती है। उससे भी भयंकर पीड़ा पूरे पैर को काटने में होती है। उससे भी भयंकर अनेक गुणी वेदना पूरे शरीर को मारने में होती है। उस समय मरने में जो असह भयंकर पीड़ा होती है उसका तो हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। अपने प्रति किये गये जिस कार्य को हम बुरा समझते हैं वही कार्य जब हम दूसरों के प्रति करते हैं तो क्या हमारा वह कार्य बुरा नहीं होगा? अवश्य होगा, और बुरा कार्य करने वाला व्यक्ति बुरा होता ही है अतः हम भी बुरे हो ही गये । यह सर्वमान्य है कि बुरा होना, बुरा कहलाना किसी को भी पसंद नहीं है। बुराई को सभी त्याज्य मानते हैं । अतः इस सर्वमान्य सिद्धान्त को स्वीकार कर हिंसा की बुराई, जो सबसे भयंकर पाप है, इससे बचना चाहिये। इसी में हमार व सबका हित है । अतः सभी का हित 'जीओ और जीने दो' के सिद्धान्त को स्वीकार करने में है । यही भगवान् महावीर का उपदेश है । पुण्य-पाप तत्त्व [29]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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