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________________ हे राजन्! इस अशाश्वत मानव जीवन में जो प्रचुर पुण्य कर्म नहीं करता है वह मृत्यु के मुख में पहुँचने पर सोच (चिन्ता-शोक) करता है और वह धर्म न करने के कारण परलोक में भी पछताता है। पुण्य सब पापों का नाशक एवं उत्कृष्ट मंगल है पुण्य का उपार्जन संयम रूप निवृत्तिपरक साधना से हो अथवा दया, दान, परोपकार रूप प्रवृत्तिपरक साधना से हो, वह मुक्ति में सहायक होता है, बाधक नहीं। जैसा कि कहा है__नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं। एसो पंच नमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं।। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु इन पाँचों को नमस्कार करने रूप पुण्य सब पापों का नाश करने वाला है तथा सर्वोत्कृष्ट मंगल है। अर्थात् नमस्कार रूप पुण्य मुक्तिप्रदाता एवं कल्याणकारी है। पुण्येन तीर्थंकरश्रियं परमां नैःश्रेयसीं चाश्रुते। - पद्मपुराण, सर्ग, ३० लोक २८ अर्थ- पुण्य से तीर्थंकर की श्री प्राप्त होती है और परम कल्याण रूप मोक्ष लक्ष्मी भी पुण्य से मिलती है। सुह-सुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो। - जयधवल, पुस्तक १ पृ.६ अर्थ- यदि शुभ या शुद्ध परिणामों अर्थात् पुण्य से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता। मोक्षं याति, परमपुण्यातिशय-चारित्र-विशेषात्मकपौरुषाभ्यामेव संभवात्। अर्थ- अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति परम पुण्य और चारित्र रूप पुरुषार्थ के द्वारा ही संभव है। पुण्यं दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभं कर्म। - स्याद्वादमंजरी, २७ पुण्य-पाप तत्त्व [27]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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